________________
अपना रूप अनोखा
२२३
"पर आज तक ये सब झूठे संयोग और नाते मुझे धोखा देते रहे हैं और मैं इन्हें अपना समझकर भ्रम में रहा हूँ। कितने दुःख की बात है कि अब तक मैंने अपने अनन्त शक्तिमय एवं अनन्त शान्तिमय अनोखे रूप को नहीं समझा।"
वस्तुतः इस संसार में मनुष्य मोह-ममता के झूठे बन्धनों में जकड़ा रहकर आत्मा के भाव को भूल जाता है । वह अपने शरीर से दिन-रात श्रम भी करता है पर वह उसे मात्र शारीरिक सुख पहुंचाते हैं, जिन्हें पाना न पाना कोई महत्त्व नहीं रखता। क्योंकि शरीर को कितना भी सुख क्यों न पहुँचाया जाये, एक दिन तो वह नष्ट हो ही जाता है अतः उसे सुख पहुँचाने का भले ही जीवन भर प्रयत्न किया जाय, सर्वथा निरर्थक जाता है। पर शरीर को सुख पहुँचाने का वह जितना प्रयत्न करता है, उसका चौथाई भी अगर आत्मा को सुख पहुँचाने का करे तो कुछ न कुछ सच्चा लाभ हासिल कर सकता है ।
शरीर को सुखी करने का प्रयत्न ठीक वैसा ही है जैसे फल, फूल तथा डालियों पर पानी उड़ेला जाय उससे वृक्ष उन्नति नहीं करता, उलटे सूख जाता है । इसी प्रकार शरीर को सुख पहुंचाते रहने से आत्मा को कोई लाभ नहीं होता, उलटे वह कर्म-बन्धनों से जकड़ी जाकर कष्ट पाती है । तो, जैसे वृक्ष को हरा-भरा बनाने के लिए मूल को सींचना आवश्यक है, वैसे ही सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए धर्माराधन द्वारा आत्मा को विशुद्ध बनाना भी अनिवार्य है। पर धर्माराधन तभी हो सकेगा, जबकि पहले भावनाएँ शुद्ध होंगी तथा मुमुक्षु वीतराग के वचनों पर विश्वास करता हुआ संतों के द्वारा उन्हें सुनेगा तथा सुनकर जीवन में उतारेगा।
सत्संगति का महत्त्व जिस व्यक्ति के हृदय में आत्म-कल्याण की इच्छा तीव्रतर हो जाती है, वह साधु-समागम से ही साधना के मार्ग की जानकारी करता है । जिस प्रकार बालक को क्या करना चाहिए और क्या नहीं ? यह पहले उसके माता-पिता और उसके बाद शिक्षक समझाते हैं। इसी प्रकार धर्म साधना की क्रियाएँ भी सन्त-महात्मा अज्ञानी पुरुष को बताते हैं । अज्ञानी पुरुष भी बालक के समान ही होता है। कहा भी हैण केवलं वयबालो.... कज्जं अयाणओ बालो चेव ।'
-श्राचारांग चूर्णि १-२-३ अर्थात् केवल अवस्था से ही कोई 'बाल' यानी बालक नहीं होता, किन्तु जिसे अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं है वह भी बाल ही है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org