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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
हम देखते हैं कि किसी वृक्ष पर खग अर्थात् पक्षी आकर बैठता है, कुछ ठहर भी जाता है, किन्तु उसके बाद उड़ ही जाता है । तो जिस प्रकार पक्षी और वृक्ष का अल्पकाल के लिए संयोग होता है, या पक्षी कुछ क्षणों के लिए वृक्ष का आश्रय लेकर पुनः अपने गंतव्य की ओर चला जाता है; इसी प्रकार स्वजनों का संयोग या मिलन होता है तथा कुछ समय के लिए व्यक्ति माता-पिता आदि का आश्रय लेता है, किन्तु समय आते ही पुनः आगे बढ़ जाता है ।
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ध्यान में रखने की बात है कि जीव जिस शरीर के आधार से इस संसार रूपी सराय में ठहरता है, वह शरीर भी यहीं छूट जाता है । स्पष्ट है कि शरीर भी जीवात्मा का अपना नहीं है । वह भी अन्य है और इसीलिए साथ नहीं रहता । संसार के सभी पदार्थ अनित्य हैं और शरीर एवं इन्द्रियाँ भी नाशवान हैं । केवल आत्मा नित्य या शाश्वत है, इसका विनाश नहीं होता । केवल पुण्य के प्रभाव से इसे कुछ काल के लिए प्रिय-संयोग मिल जाते हैं, पर वे ही पुण्य समाप्त होते ही विलग हो जाते हैं ।
पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज ने भी इस विषय में कहा हैजैसे मनोरम्य वृक्ष दलबल फूल युक्त,
नाना भांति पंखी आवे स्वारथ विचार के । सिरी विन लाय तब कोई नहीं बैठे आय,
दिखत विरूप रूप देखी पतझार के ॥ तैसे तेरे पुण्य के प्रभाव आवे धन-धान्य, जावे सब समय
सुहाने परिवार के ।
पुण्य दे उत्तर तब कोई नहीं देगा साथ,
भाई मृगापुत्र ऐसी भावना सुधार के ||
बन्धुओ, कवि लोग किसी बात को समझाने के लिए नाना प्रकार की उपमाएँ देते हैं और सुन्दर शब्दावलि का प्रयोग करते हैं, जिससे मन को अच्छा लगता है तथा बात शीघ्र समझ में आ जाती है । पर अगर पद्य या कविताएँ बोध- प्रद भी हों तो वे मन पर असर करती हैं तथा आत्मा जाग उठती है । उपदेश, वैराग्य, समत्व एवं शान्त रस से परिपूर्ण कविताएँ व्यक्तियों को सन्मार्ग पर लाती हैं ।
साहित्य में नौ रस बताये गये हैं । शृंगाररस, वीररस, रौद्ररस, बीभत्स - रस, करुणरस एवं शांतरस आदि-आदि । किन्तु मेरा अनुभव है कि आठों रसों की शक्ति मिलकर भी शांत रस का मुकाबला नहीं कर पाती । वैराग्यपूर्ण
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