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अपना रूप अनोखा
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शांतरस सम्पन्न कविताओं में या पदों में बड़ी मार्मिक शक्ति होती है। मराठी में आप देखेंगे कि समर्थ रामदास स्वामी, संत तुकाराम, ज्ञानदेव आदि जिन महापुरुषों ने त्याग के मार्ग को अपनाया, उनके वचनों में बड़ी ताकत थी क्योंकि शान्ति का अखण्ड साम्राज्य उनके अन्दर था।
पूज्य श्री त्रिलोक ऋषि जी महाराज का पद भी इसी प्रकार अत्यन्त सरल, शिक्षाप्रद तथा मर्मस्पर्शी है। पढ़कर हृदय हिल उठता है कि संसार की कैसी विचित्रता है और किस प्रकार जीव इसमें आकर्षित बना रहता है। किन्तु अन्त में परिणाम क्या होता है ? यही कि समस्त पर-पदार्थों को छोड़कर वह अकेला चल देता है।
तो महाराज श्री कहते हैं कि जो वृक्ष फल, फूल एवं पत्तों से युक्त मनोरम होता है, उस पर नाना प्रकार के पक्षी अपने-अपने स्वार्थ को लेकर आते हैं । कोई उस पर लगे हुए फलों को खाना चाहता है, कोई उसकी डालों पर अपना घोंसला बनाना चाहता है और कोई उसकी शीतल छाया में आनन्दपूर्वक कुछ समय विश्राम लेना चाहता है। पर वे कब तक उस वृक्ष के समीप आयेंगे ? तभी तक, जब तक कि पतझर आकर उसके फल-फूलों को तथा पत्तों को सुखाकर गिरा नहीं देता। खाने के लिए फल न मिलें, बैठने के लिए छाया न मिले और घोंसला बनाने के लिए डालियाँ न मिलें तो कौन वहाँ आएगा? कोई भी नहीं । न पशु-पक्षी और न ही कोई मनुष्य । ____तात्पर्य यही है कि पतझर के प्रभाव से श्रीहीन हुए कुरूप वृक्ष को कोई भी पसंद नहीं करता और न ही उसके समीप फटकना ही चाहता है। कवि ने अन्योक्ति अलंकार के उदाहरण के द्वारा वृक्ष की दशा बताते हुए उसे जीवात्मा पर घटित किया है । कहा है-“हे आत्मन् ! जिस प्रकार फल-फूलों से लदे वृक्ष के पास अनेक प्राणी अपने-अपने स्वार्थ को लेकर आते हैं उसी प्रकार जब तक पुण्य-कर्मों के उदय से तेरे पास धन-वैभव है, तब तक सगे-सम्बन्धी भी तुझे घेरे रहते हैं तथा मेरा-मेरा कहते हैं। किन्तु अगर तेरे पुण्य-कर्म समाप्त हो जायँ और पाप-कर्मों के फलस्वरूप तू दीन-दरिद्र और नाना प्रकार से अभावग्रस्त हो जाय तो फिर तेरे सभी सम्बन्धी मुंह फेर लेंगे और मेरा पुत्र, मेरा भाई या मेरा पति, ये शब्द सुनने तुझे दुर्लभ हो जाएँगे।"
वस्तुतः सांसारिक नाते इसी प्रकार के होते हैं। जब तक व्यक्ति धन कमाता है तब तक माँ-बाप, भाई, पुत्र और पत्नी सभी उससे प्रेम रखते हैं तथा अपना कहते हैं, किन्तु संयोगवश अगर वह किसी कारण से कमाने में असमर्थ हो जाय तो कोई उसे देखकर प्रसन्न नहीं होता, उलटे अपमान एवं
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