________________
२१०
आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
में भ्रमण करती रही है और इस जन्म में भी अगर धर्माराधन नहीं किया तो पुनः अन्य गतियों में जाकर दुःख भोगना पड़ेगा । नरक या स्वर्ग व्यक्ति को दिखाई नहीं देता अतः उसे उन पर पूरा विश्वास नहीं होता तथा कर्मों का भय नहीं.लगता । इसीलिए आत्मा के एकत्व को वह इस संसार में आने तक और यहाँ से जाने तक में ही मानता है। परिणाम यह होता है कि उसके विचार डाँवाडोल बने रहते हैं और वह पापों से पूर्णतया डरकर उन्हें छोड़ नहीं पाता।
किन्तु मुझे आपसे यही कहना है कि आप वीतराग के वचनों पर पूर्ण विश्वास या दृढ़ श्रद्धा रखते हुए गम्भीरतापूर्वक यही भावना भाएँ कि हमारी आत्मा केवल इस पृथ्वी पर ही अभी ही अवतीर्ण नहीं हुई है अपितु इससे पहले भी न जाने कब से शुभाशुभ कर्मों के अनुसार सुख और दुःख भोगती हुई आई है, तथा अब हम जैसे कर्म करेंगे उनके अनुसार यहाँ से मरकर भी सुख और दुःख भोगने पड़ेंगे और उस समय वह अकेली होगी । यहाँ का धन यहीं रहेगा और स्वजन-सम्बन्धी भी यहीं छूटेंगे।
तो मैं आपको यह बता रहा था कि जब इस प्रकार वास्तविक एवं पूर्ण रूप से मनुष्य एकत्व भावना को समझ लेगा और उसे हृदय में विश्वाससहित स्थान दे देगा तो निश्चय ही वह कर्मों से भयभीत होता हुआ पापों से बचने का प्रयत्न करेगा । पर इसके लिए पहले भावनाओं में दृढ़ता लाना आवश्यक है। भावना भाना आचरण की पहली सीढ़ी है। उस पर पैर रखने पर ही वह मोक्ष-मंजिल की अन्य सीढ़ियों पर चढ़ सकेगा। पर जो व्यक्ति पहली सीढ़ी के नजदीक ही नहीं पहुँचता या उस पर पैर नहीं रखता वह ऊपर कैसे चढ़ेगा ?
इसलिए सर्वप्रथम एकत्व भावना को अवश्य और सही तौर पर भाना चाहिए। उसमें अगर सचाई आगई यानी प्रथम सीढ़ी दिखाई दे गई तो फिर ऊपर चढ़ना सरल हो जाएगा।
किस प्रकार इस भावना को सचाई से भाना चाहिए इस विषय में पं० भारिल्लजी कहते हैं
जन्मे कितने जीव हैं, जग में करो विचार । लाये कितने साथ में, पहले का परिवार ।। राज-पाट-सुख-सम्पदा, वाजि, वृषभ, गजराज । मणि माणिक मोती महल, प्रेमी स्वजन समाज ।। आया है क्या साथ में, जाएगा क्या साथ । जीव अकेला जाएगा, बन्धु पसारे हाथ ।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org