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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
आक्रमण कर देने पर न धन, और न ही कोई सम्बन्धी प्राणी को शरण देकर इस पृथ्वी पर कुछ काल भी रखने में समर्थ है। लाख उपाय करने पर भी और कहीं जाकर छुप जाने पर भी वह मौत की दृष्टि से ओझल नहीं हो सकता। यही बात कवि ने भी कही है--
अम्बर में पाताल लोक में या समुद्र गहरे में। इन्द्र भवन में, शैल गुफा में, सेना के पहरे में ।। वज्र विनिर्मित गढ़ में या अन्यत्र कहीं छिप जाना।
पर भाई ! यम के फन्दे में अन्त पड़ेगा आना । कवि ने अकाट्य सत्य सामने रखते हुए मानव को चेतावनी दी है-"भाई ! तू चाहे आकाश में, पाताल में, समुद्र की तह में, स्वर्ग में जाकर स्वयं इन्द्र के भवन में, या वज्र के सदृश सुदृढ़ चट्टानों से बनी हुई गुफा में जाकर छिप जा, याकि महाशूरवीर योद्धाओं की सेना बनाकर उसके पहरे में रह, किन्तु जिस क्षण तेरा अन्तकाल आ जाएगा उसी पल यमराज का फन्दा निश्चित रूप से तेरे गले में पड़ जाएगा, किसी के रोके नहीं रुकेगा । न उस समय तुझे तेरी सेना बचा सकेगी, न इन्द्र ही अपनी शरण में रख सकेगा और न कोई स्थान तुझे यम की दृष्टि से ओझल कर सकेगा।
___ अत: बुद्धिमानी इसी में है कि तू जीवन रहते ही धर्म की सच्ची शरण ग्रहण कर ले । धर्म ही तुझे पुनः-पुनः जन्म से छुटकारा दिला देगा और तब यमराज ताकते रहेंगे । जो व्यक्ति यह समझ लेता है कि इस संसार में धर्म के अलावा अन्य कोई भी शरणदाता नहीं है, वह अपने जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ नहीं गँवाता और न ही वृद्धावस्था आने पर धर्माराधन करूंगा, ऐसा विचार ही करता है।
अनाथी मुनि ने भी अपनी युवावस्था, अपार वैभव और अतुल सौन्दर्य की परवाह न करते हुए अविलम्ब धर्म की शरण ले ली तथा पंचमहाव्रतधारी मुनि बनकर साधना करने लगे। किन्तु राजा श्रेणिक को उन्हें देखकर दया आई और इस पर उनसे पूछ लिया-"आप किस दुःख से मुनि बन गये ?"
मुनि ने भी अशरण भावना भाते हुए उत्तर दिया--
"मेरा कोई नाथ नहीं था, यानी मुझे कोई शरण देने वाला नहीं था अतः मैं मुनि बना हूँ।”
यह सुनकर श्रोणिक ने कुछ गर्व मिश्रित भाव से कहा- "अगर ऐसा है तो मैं आपका नाथ बनता हूँ, आप निश्चिन्त होकर सांसारिक सुखों का उपभोग करिये !"
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