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सब टुकुर-टुकुर हेरेंगे...
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पर उसे इस बात का बड़ा दुःख रहता था कि सेठजी को धन कमाने के अलावा और कुछ भी नहीं सूझता था। कभी भी वे न ईश्वर का नाम लेते थे, और न ही सामायिक-प्रतिक्रमणादि किसी कार्य में रुचि लेते थे।
एक दिन सेठानी से नहीं रहा गया और वह बोली
"धन तो अपने पास बहुत इकट्ठा हो गया है, अत: आप अब तो अपनी आत्मा के सुधार के लिए कुछ समय निकाल कर धर्म-कार्य किया कीजिये !"
सेठ ने उत्तर दिया-"अभी क्या मैं बूढ़ा हो गया हूँ ? जब तक समय है, पुत्र के लिए और भी इकट्ठा कर दूं ताकि वह जीवनभर आनन्द से रहे । धर्म की क्रियाएँ तो बाद में ही कर लूंगा जब वृद्ध हो जाऊँगा।"
बेचारी सेठानी यह सुनकर चुप हो गयी। पर संयोग की बात कि दुर्भाग्य से सेठ का वह पुत्र किसी साधारण बीमारी से ही चल बसा। सेठजी को बड़ा दुःख हुआ और वे माथे पर हाथ धरकर बैठ गये ।
दस-पाँच दिन बाद एक दिन सेठानी सेठजी के समीप आई और बोली"आप हाथ पर हाथ धरे कितने दिन बैठे रहेंगे ? पेढ़ी पर नहीं जाना है क्या ? इतने दिन में ही तो न जाने कितना व्यापार में नुकसान हो गया होगा ।" ___ सेठानी की बात सुनकर सेठ ने उत्तर दिया-"कैसी बातें करती हो तुम? जिस बेटे के लिए मैं धन इकट्ठा कर रहा था, वही चल बसा । अब इसे कौन भोगेगा ?"
पुत्र शोक से स्वयं दु:खी होने पर भी सेठानी धीर एवं संयत भाव से बोली-“वाह ! बेटा चल बसा तो क्या हुआ ? अभी हम कौनसे वृद्ध हो गये हैं ? आप और मैं ही इसे भोगेंगे । हमारा जीवन तो अभी बहुत बाकी है, चिन्ता किस बात की ?"
सेठानी की यह मार्मिक बात सुनकर सेठजी की आँखें खुल गईं, वे समझ गये कि पत्नी मुझे उद्बोधन दे रही है और वास्तव में ही जीवन का कोई भरोसा नहीं । जब इतनी अल्पायु में पुत्र जा सकता है तो मेरे जीवन का क्या ठिकाना ? किसी भी पल काल मुझे भी ले जा सकता है।
उसी वक्त सेठजी उठे और अपना धन गरीबों में बाँटने लग गये । साथ ही स्वयं ने अपना सम्पूर्ण समय धर्म-ध्यान में लगाकर आत्मा का कल्याण करना प्रारम्भ कर दिया।
बन्धुओ, प्रत्येक व्यक्ति को इसीलिए विचार करना चाहिए कि काल के
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