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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
"मैं क्षत्रिय राजकुमार हूँ । कभी वचन भंग नहीं कर सकता । इच्छा हो तो एक बार परीक्षा करके देख लो ।”
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उस राक्षस को राजकुमार के दृढ़ वचन सुनकर कुछ आश्चर्य हुआ और उसने सोचा-"क्या हर्ज है ? एक बार इसकी परीक्षा ही कर लूँ । कदाचित यह लौटकर नहीं भी आया तो मेरी क्या हानि हो जाएगी ? इस वन में लोग भूले-भटके आते ही रहते हैं । एक के बदले चार को मार डालूंगा ।" यह विचार कर उसने राजकुमार को अपना काम करके लौट आने तक के लिए छोड़ दिया ।
कुछ दिन बाद उसने देखा कि कुरु देश का वही राजकुमार उसे खोजता हुआ उसके सन्मुख आ खड़ा हुआ है। साथ ही नरभक्षी ने देखा कि राजकुमार का चेहरा उस दिन के समान उदास और दुःखी नहीं है; बल्कि फूल के समान खिला हुआ है और उस पर अपार तृप्ति तथा संतुष्टि के चिह्न दिखाई दे रहे हैं । आश्चर्य के साथ वह पूछ बैठा
" राजकुमार ! मुझे तुम्हारे लौटने की तनिक भी आशा नहीं थी । क्या तुम्हें मृत्यु का भय नहीं है ? मैं तो हमेशा व्यक्तियों को मरते समय रोते- चीखते ही देखता हूँ ।"
राजकुमार अपनी उसी प्रसन्नता और शांतिपूर्ण स्निग्धता से बोला- “भाई सचमुच ही मैं मृत्यु से नहीं डरता, क्योंकि अपने अब तक के जीवन में मैंने कोई भी दुष्कृत्य नहीं किया है, जिसके कारण मरने पर परलोक में किसी प्रकार का दुःख उठाना पड़े। अब तक का सम्पूर्ण जीवन मैंने संयम एवं सदाचार पूर्वक बिताया है, ऐसी स्थिति में भला मरने से मैं क्यों डरूँगा ? मृत्यु का भय तो केवल उन्हीं लोगों को होता है जो पाप-पुण्य एवं परलोक में विश्वास न रखने के कारण जीवन में सदा पापाचरण करते हैं तथा क्रूरता के कारण भयंकर से भयंकर कृत्य करने में भी पीछे नहीं हटते । परिणाम यही होता है कि उन व्यक्तियों को मरते समय अपने पापों के लिए पश्चात्ताप तो होता ही है, साथ ही यह भय बना रहता है कि जीवन भर किये हुए पापों के कारण परलोक में मुझे न जाने कैसे घोर कष्ट भोगने पड़ेंगे ।"
नर-हत्यारे ने जब राजकुमार के ये शब्द सुने तो उसकी आँखें खुल गईं और उसे महसूस होने लगा कि - 'मैंने तो न जाने कितने लोगों की जानें ली हैं तथा असंख्य पाप संचय कर लिये हैं । पर अब भी अगर नहीं चेता तो फिर मेरी परलोक में क्या दशा होगी ?" यह विचार आते ही उसने राजकुमार को अनेकानेक धन्यवाद देते हुए उसे तो छोड़ ही दिया साथ ही अपने जीवन को
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