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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
कर्म के कम या अधिक क्षयोपशम के कारण किसी की बुद्धि इतनी मोटी होती है कि वह चार अक्षर भी सुगमता से नहीं सीख सकता और कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण बत्तीसों शास्त्र पढ़ लेते हैं, उन्हें समझ लेते हैं तथा आगम-वर्णित बातों को तथा सिद्धान्तों को कण्ठस्थ कर लेते हैं ।
ऐसे प्रत्यक्ष उदाहरणों से जब यह सिद्ध हो जाता है कि व्यक्तियों के ज्ञान में तरतमता अवश्य है तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि ज्ञानवृद्धि की चरम सीमा हो गई और इससे अधिक ज्ञानी न हुए हैं, न हैं और न होंगे ही। यह तो वही कूप-मंडूक वाली बात हो गई कि कुए का मेंढक कुए को ही संसार के विस्तार की सीमा समझ लेता है। अब उसके कहने से क्या संसार का विस्तार कुए से बड़ा रहा नहीं ? है नहीं ? और होगा नहीं ?
इसलिए साधक को ऐसी बात न सोचकर यह सोचना चाहिए कि आज भी जब व्यक्तियों के ज्ञान में जमीन-आसमान की तरतमता पाई जाती है तो ज्ञानवृद्धि की चरम सीमा अवश्य है और वह सर्वज्ञता या सर्वदर्शिता के रूप में ही हो सकती है, क्योंकि उससे अधिक ज्ञान क्या हो सकता है ? सर्वज्ञ सब कुछ जान लेता है और सब कुछ देख लेता है, कुछ भी और जानना और देखना उसके लिए बाकी नहीं रह जाता।
तो भले ही आज कोई व्यक्ति ज्ञान की उस चरम सीमा को न पा सके, किन्तु जबकि वह भूतकाल में रही है, आज भी है और भविष्य में भी रहेगी तो कुछ भव्य आत्माओं ने निश्चय ही ज्ञान की उस सीमा को पाया है और वे भव्य आत्माएँ तीर्थंकर, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और जिन के नाम से संबोधित की गई हैं । पर वह सीमा प्राप्त कर लेना हँसी-खेल नहीं है और न थोड़े से शारीरिक या बौद्धिक श्रम से हासिल की जा सकती है। ज्ञान की चरम सीमा कैसे हासिल होती है ?
प्रत्येक साधक को यह भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि जिस आत्मा का जितने परिमाण में कर्मक्षय या क्षयोपशम होगा उसकी उतनी ही ज्ञान वृद्धि होती चली जायेगी। आत्मा तो अपने स्वभाव से अनन्तदर्शन और अनन्तज्ञान का भंडार है, किन्तु उसकी दर्शन और ज्ञान की अनन्त शक्ति को कर्म के प्रगाढ़ आवरण आच्छादित किये रहते हैं। उन आवरणों को जितने-जितने अंशों में दूर किया जायेगा उतने ही अंशों में ज्ञान का विकास होता चला जायेगा और जिस क्षण वे कर्म-जन्य आवरण सर्वथा दूर हो जाएंगे, ज्ञान अपनी अनन्तशक्ति सहित अन्तिम सीमा को प्राप्त कर लेगा अर्थात् कर्मरहित आत्मा सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी बन जायेगी।
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