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जाए सद्धाए निक्खन्ते १६६ हैं- "हे जम्बू ! मैंने भगवान के उपदेशों में प्रतिपादित बाईस परिषह तुम्हारे सामने ज्यों के त्यों रखे हैं । जो साधु इन्हें समझकर इनका वीरतापूर्वक सामना करेंगे, वे निश्चय ही अपने अभीष्ट की सिद्धि कर लेंगे।" । वस्तुतः इस संसार में व्यक्ति जो नश्वर वस्तुएँ पाना चाहता है, उनके लिए भी उसे कितना श्रम करना पड़ता है और कितना कष्ट भोगना होता है, तो फिर शाश्वत सुख की प्राप्ति बिना कष्टों को सहन किये या बिना परिषहों का मुकाबला किये कैसे हो सकती है ? लक्ष्य जितना ऊँचा होगा, कष्ट भी उतने ही झेलने पड़ेंगे । हम चाहते हैं कि हमारी आत्मा अनन्तज्ञान की प्राप्ति करले और कभी न मिटने वाले सुख को हासिल करे, पर इतने महान् फल के लिए श्रम कुछ भी न करें तथा शरीर को भी कष्ट न पहुँचाएँ तो बात कैसे बन सकती है ?
परमात्मा का पद प्राप्त करने की इच्छा तो सभी की होती है, किन्तु उसके अनुरूप व्यक्ति साधना न करे, कुछ त्याग न करे, तप न करे और परिषहों को जीतने के लिए प्रयत्न भी न करे तो परमात्म-पद क्या आँखों के सामने पड़ी हुई कोई छोटी-मोटी वस्तु है जिसे इच्छा करते ही उठाया जा सके ? नहीं परमात्म-पद की प्राप्ति के लिए तो बहुत साधना करनी होगी, यह भी सम्भव है इस एक जन्म तक ही नहीं, अनेक जन्मों तक भी करते जाना होगा। तब कहीं आत्म-मुक्ति सम्भव हो सकेगी। जो साधक इस बात को भली-भाँति समझ लेगा वह दृढ़ कदमों में संवर की आराधना करेगा तथा मार्ग में आने वाले सम्पूर्ण परिषहों का पूर्ण आत्म-बल से सामना कर सकेगा और ऐसा करने पर एक न एक दिन उसे अपने लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होगी।
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