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जाए सद्धाए निक्खन्ते
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यहाँ एक बात और मैं आज आपको बताना चाहता हूँ कि कर्म आठ होते हैं जो इस प्रकार हैं-- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र एवं अन्तराय ।
ये आठों कर्म ही आत्मा को संसार - परिभ्रमण कराते हैं किन्तु जिन बाईस परिषहों का वर्णन मैं आपके समक्ष कई दिनों से रख रहा हूँ ये परिषह प्रत्येक कर्म के उदय से उदय में नहीं आते अपितु ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय एवं अन्तराय इन चार कर्मों के कारण ही बाईस परिषह सामने आते हैं । अब मैं आपको यह भी बता देता हूँ कि किस कर्म के कारण कौन-कौन से परिषह उदय में आया करते हैं ?
ज्ञानावरणीय कर्म- - इसके उदय से प्रज्ञा एवं अज्ञान परिषह का उदय होता है ।
अन्तराय कर्म - इसके कारण अलाभ परिषह होता है ।
यथा - क्षुधा,
वेदनीय कर्म - यह कर्म कई परिषहों को उदय में लाता है तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, मल, वध, रोग एवं तृण परिषह । इस प्रकार ग्यारह परिषह केवल वेदनीय कर्म के कारण उदय में आया करते हैं ।
अब आता है मोहनीय कर्म । यह दो प्रकार का होता है - चारित्र मोहनीय एवं दर्शन मोहनीय |
चारित्र मोहनीय - इस कर्म से अरति, अचेल, स्त्री, नैषेधिकी, याचना, सत्कार और आक्रोश परिषह उदय में आते हैं ।
दर्शन मोहनीय - यह कर्म दर्शन परिषह को उपस्थित करता है । दर्शन परिषह के विषय में यह जानना आवश्यक है कि अगर साधक इस परिषह को जीत ले तो अन्य परिषहों को अवश्य ही सरलतापूर्वक विजित कर सकता है । क्योंकि जो व्यक्ति धर्म पर एवं वीतराग प्रभु के वचनों पर दृढ़ श्रद्धा रखता है, वह अपने ऊपर आये हुए सभी कष्टों और संकटों को अपनी अविचलित श्रद्धा के बल पर समभाव से सहन कर सकता है ।
परिषहों के विषय में अन्त में कहा गया है—
ए ए परिषहासव्वे, कासवेण
पवेइया |
जे भिक्खु न विहन्नेज्जा, पुट्ठो केणइ कण्हुई ॥ त्ति बेमि ॥
- श्रीउत्तराध्ययन सूत्र, अ. २-४३ गाथा में कहा गया है - काश्यपगोत्रीय भगवान महावीर के द्वारा प्रति
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