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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
देखो बंधु ओ, जिन मुसलमानों को आप हिंसा-प्रिय कहते हैं और जिनके धर्म को नफरत की निगाह से देखते हैं उन्हीं का धर्मग्रन्थ कुरान' कहता है
.. "अल्लाह जालिमों से कभी प्रेम नहीं कर सकता । याद रखो कि अत्याचारी व्यक्ति सदा कष्ट सहन करेंगे।"
__ अत्याचार की भर्त्सना करते हुए यथार्थ-स्पष्ट और सच्चे शब्दों में मुस्लिम धर्म भी हिंसा और हिंसक को ताड़ित करते हुए यही कह रहा है कि अत्याचारी सदा कष्ट सहन करेंगे, यानी उनकी आत्मा केवल इस लोक या इस जन्म में ही नहीं, वरन् परलोक में भी अनेक जन्मों तक हिंसा के महापापों का परिणाम भोगेगी और घोर कष्टों का अनुभव करेगी।
इसलिए प्रत्येक आत्मार्थी व्यक्ति को मन, वचन एवं शरीर, इन तीनों के द्वारा हिंसा से बचना चाहिए। इन तीनों योगों के द्वारा हुई हिंसा भी पाप है
और अविवेक या प्रमादवश हो जाने वाली हिंसा भी पाप कर्मों का बंधन अवश्य करती है । अतः मुमुक्षु को बड़ी सावधानी एवं बारीकी से हिंसा के कार्यों से, भावनाओं से और प्रमाद से दूर रहने का प्रयास करना चाहिए । अन्यथा भले ही व्यक्ति अपने मन को संतुष्ट करे कि मैंने हिंसा नहीं की है, पर हिंसा का पाप उसकी आत्मा को उसके अनजान में भी आच्छादित कर लेगा। इस विषय में दो गाथाएँ हैं । उन्हें आपके सामने रखता हूँ :
जो य पमत्तो परिसो, तस्स य जोगं पडुच्च जे सत्ता। वावज्जते नियमा, तेसि सो हिसओ होइ॥ जे वि न वावज्जंतो नियमा तेसिपि हिंसओ सोउ । सवज्जो उपयोगेणं सव्वभावेण सो जम्हा ॥
-श्रोधनियुक्ति ७५२-५३ अर्थात्--जो प्रमत्त या प्रमादी व्यक्ति है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो प्राणी मरते हैं उन सबका हिंसक तो वह व्यक्ति होता ही है, किन्तु जो प्राणी नहीं मरते हैं उनका हिंसक भी वह प्रमत्त व्यक्ति होता है क्योंकि वह अन्तर में तो सर्वतोभावेन हिंसावृत्ति के कारण सावध है-पापात्मा है।
__कहने का आशय यही है कि प्रत्येक पाप और यहाँ जैसा कि हम कह रहे हैं हिंसा का पाप भी बड़े सूक्ष्म तरीके से आत्मा को जकड़ता है । अतः बड़ी सावधानी से उससे दूर रहना चाहिए तथा अपने मन, वचन, कर्म एवं प्रमाद
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