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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
कितनी यथार्थ एवं मर्मस्पर्शी भावना है ? वस्तुतः इस संसार में मानवशरीर तो करोड़ों व्यक्तियों को मिला हुआ है, किन्तु उनमें से कितने व्यक्ति इस जीवन की दुर्लभता को समझ पाते हैं और इससे सच्चा लाभ उठाते हैं ?
लाखों व्यक्ति तो लूले-लँगड़े, गूंगे-बहरे व्याधिग्रस्त या अन्य प्रकार से अपंग होकर सतत् आर्त-ध्यान करते हुए हाय-हाय करके यह जीवन समाप्त करते हैं और जो पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण एवं व्याधि रहित शरीर की प्राप्ति कर लेते हैं वे धन के अभाव से, पुत्रहीनता से या पारिवारिक जनों की अयोग्यता से सदा दुःखी रहते हुए कर्मों का बन्धन करते हैं । इसके अलावा जिन व्यक्तियों को ये दुःख नहीं होते वे दूसरों की उन्नति से ईर्ष्या करते हुए, अपने काफी धन से भी संतुष्ट न होकर धन-कुबेर बनने की लालसा रखते हुए, अत्यधिक मान-प्रतिष्ठा के लिए व्याकुल रहते हुए तथा अधिक से अधिक भोगों को भोगने की तमन्ना रखते हुए बावले बने रहते हैं। उनकी वर्तमान स्थिति कितनी भी अच्छी क्यों न हो, वे कभी संतोष और सुख का अनुभव नहीं करते।
ऐसी स्थिति में भला वे अपने चिन्तामणि के सदृश जीवन का भी लाभ कैसे उठा सकते हैं ? वे केवल विषयभोगों को और शरीर की रक्षा को ही जीवन का उद्देश्य समझते हैं । यह नहीं समझ पाते कि यह शरीर नाशवान है और भोगों के सुख क्षणिक हैं । सच्चा सुख तो आत्मा को कर्मों से मुक्त करके जन्ममरण से सदा के लिए छूट जाने में है । जब तक ऐसी भावना उनके हृदय में नहीं आती तब तक उनका सुख-प्राप्ति का स्वप्न पूरा कैसे हो सकता है ? यानी कभी नहीं हो सकता।
तो बन्धुओ, मानव-शरीर पाकर भी विरले ही व्यक्ति होते हैं जो आत्मा को शरीर से भिन्न समझ कर उसके कल्याण में संलग्न हो जाते हैं तथा जीवन को पूर्ण रूप से संयमित करके पूर्ण निरासक्त, निस्पृह या निर्ममत्व भाव से केवल कर्म-निर्जरा को ही अपना लक्ष्य मानते हैं और जब वे उस लक्ष्य की प्राप्ति में लग जाते हैं तो चाहे कोई सुख दे या दुःख, अमृत पिलाये या विष सभी समान मानकर अपने मार्ग से च्युत नहीं होते । कवि ने आगे कहा है
यह तो मजा जिन्दगी का है प्यारे, बिगड़े हुए को जो फिर से सुधारे ताकत जो हो साथ सबको लिये जा। विष को भी ।
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