________________
जाए सद्धाए निक्खन्ते
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
हमारा संवरतत्त्व के सत्तावन भेदों पर विवेचन चल रहा है। उनमें से . इकत्तीसवाँ भेद 'दर्शन परिषह' है जो कि बाईस परिषहों में अन्तिम परिषह माना गया है। ___ दर्शन का अर्थ श्रद्धा है और जो 'दर्शन परिषह' पर विजय प्राप्त नहीं कर पाता, यानि श्रद्धा से विचलित हो जाता है वह व्यक्ति शंकाओं से भरकर सोचने लगता है कि 'परलोक कहीं नहीं है अतः अब तक मैंने जो तपश्चर्या की, वह निरर्थक गई है। मैं छला गया हूँ, क्योंकि किसी भी तपस्वी को मैंने कोई ऋद्धि प्राप्त करते नहीं देखा ।'
पर तपस्वी या साधक का ऐसा विचार करना गलत है। क्योंकि उसने ऋद्धि देखी नहीं, इसलिए ऋद्धियाँ नहीं होतीं यह कैसे हो सकता है ? हम जिस वस्तु को न देख पाएँ, उसका अस्तित्व ही नहीं है ऐसा कहना सरासर गलत है। मराठी भाषा में संत तुकारामजी कहते हैं
"आंधल्यासी जन अवधेचि आंधले,
आपणासी डोले दृष्टि नाहीं।" अन्धे व्यक्ति को सभी व्यक्ति अन्धे ही जान पड़ते हैं। उदाहरणस्वरूप किसी अन्धे व्यक्ति की लकड़ी पकड़ कर कोई व्यक्ति चलता है, पर असावधानी से या इधर-उधर दृष्टि होने से लकड़ी पकड़कर चलने वाला व्यक्ति ठोकर खा जाता है। ठोकर खाने से लकड़ी ऊँची-नीची हो जाती है और वह अन्धा कहता है- "मुझे कुछ नहीं दिखता पर लगता है कि तुझे भी कुछ दिखाई नहीं देता।"
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org