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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
राजा हँस पड़े और बोले - " वाह ! जीभ से आपकी औषधि खाता हूँ, इसीलिये वह अच्छी है और न खाऊँ तो बुरी हो जाएगी ?"
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लुकमान भी मुस्कराते हुए बोले – “ नहीं महाराज ! औषधि जीभ पर रखी जाती है इसलिए ही वह अच्छी और बुरी नहीं है । अपितु श्रेष्ठ इसलिये है कि इसके द्वारा हम संसार के व्यक्तियों को सान्त्वना प्रदान कर सकते हैं, तथा सत्य रूपी अमृत का पान भी करा सकते हैं, और बुरी वह तब हो जाती है, जबकि इसके द्वारा सुनने वाले व्यक्तियों का हृदय दुखता है या कि सत्य एवं मिथ्या का विष लोगों में फैलाया जाता है ।
किसी ने ठीक ही कहा है
जिह्वा में अमृत बसे, विष भी तिसके पास । इक बोले तो लाख ले, एके लाख - विनास ॥
वस्तुतः वाणी से ही मनुष्य सम्मान और प्रेम का पात्र बनता है तथा वाणी से ही अपमान एवं तिरस्कार का भाजन बन जाता है ।
अब हम कविता के आगे का पद्य लेते हैं, वह इस प्रकार हैतूने मनों दूध पी डाला, तूने दही मनों खा डाला, फिर भी मन तेरा मटियाला, काला हो रहा है क्यों ?
कवि का कथन है-- "अरे भाई तूने मनों शक्कर और मिठाई खाई पर तेरी जबान पर जिस प्रकार तनिक भी मिठास नहीं आई, उसी प्रकार मनों दूध और दही का सेवन करने पर भी तेरा मन उजला नहीं हो पाया ऐसा क्यों ?"
वास्तव में ही जिसके हृदय में कषायभाव बने रहते हैं, उसका हृदय काला रहता है । जब तक व्यक्ति का मन मलिन भावनाओं से भरा है, नाना प्रकार की कामनाओं से व्याकुल है तथा लालसाओं की अपूर्णता से पीड़ित है, वह कभी भी संवर या साधना की शुभ्रता को ग्रहण नहीं कर पाता । ऐसे व्यक्ति के मन में क्षुद्र से क्षुद्र घटना भी क्रोध का संचार कर देती है, अत्यधिक धन प्राप्ति के पश्चात् भी लोभ का भूत घर किये रहता है, अपने धन, जन, विद्या, बुद्धि एवं प्रभुत्व का मद भरा रहता है तथा पराई उन्नति देखकर ईर्ष्या से काला हो जाता है । परिणाम यह होता है कि आत्मा की उज्ज्वलता एवं पवित्रता नष्ट हो जाती है तथा परलोक महान् दुःखदायी बन जाता है ।
'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' में कषायों के विषय में कहा भी है-
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