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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
. कहा भी है-- जहा पोम्म जले जायं, नोव लिप्पइ वारिणा ।
-उत्तराध्ययनसूत्र, अ० २५, गा० २७ अर्थात्-वह भोगोपभोग के साधनों से उसी प्रकार अलग रहता है, जिस प्रकार जल में जलज यानी कमल । . निश्चय ही संसार से विरक्त रहने वाला व्यक्ति भले ही कर्म-जल में रहे पर उसमें पड़े हुए भ्रम के भँवरों में वह नहीं फँसता और धीरे-धीरे अपनी साधना के द्वारा तैरता हुआ पार हो जाता है । लंका नगरी और उसका राजा ___आगे कहा गया है-संसार-समुद्र में मनदण्ड, वचनदण्ड एवं कायादण्डरूपी त्रिकूट द्वीप है, जिस पर लालचरूपी लंका नगरी बसी हुई है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से इस नगरी का राजा महामोहरूप रत्नश्रवा और रानी क्लेशरूपी कैकसी है । यह स्वाभाविक ही है क्योंकि जहाँ मोह होगा वहाँ क्लेश होना अनिवार्य है।
इस संसार में सहज ही देखा जा सकता है कि व्यक्ति धन, मकान, जमीन एवं परिवार आदि के मोह में पड़कर नाना प्रकार के लड़ाई-झगड़े करता है
और क्लेशपूर्ण वातावरण अपने चारों ओर बना लेता है । कभी वह धन के लिए अपने भाई-बन्धुओं के प्राण लेता है और कभी स्त्री के मोह में पड़कर अपना सभी कुछ गंवा बैठता है । इसीलिए ज्ञानी पुरुष कहते हैं--
दारा सूत आदि मोहपाश में बँधायो मुढ,
करत ममत कूड कपट की खान है। अष्टादश पाप कर बाँधत करम शठ,
कालमुख जाय मन करे पछतान है। पद्य का अर्थ स्पष्ट और सरल है कि मूर्ख प्राणी पत्नी पुत्रादि के मोह एवं पाश में बँधकर नाना प्रकार के कपटपूर्ण कृत्य और धोखेबाजी करता हुआ अठारहों प्रकार के पापों का बन्धन करता है तथा अपने क्लेश की सामग्री जुटाता है किन्तु जब मृत्यु का समय आता है तो उसे पश्चात्ताप के अलावा और कोई उपाय दिखाई नहीं देता। . ___ कहने का अभिप्राय यही है कि जहाँ मोह होता है वहाँ क्लेश भी रहता है। यही बात पूज्य श्री त्रिलोकऋषिजी महाराज ने कही है कि संसाररूपी सोगर में जो त्रिकूट है वहाँ महामोहरूपी राजा रत्नश्रवा और उसकी क्लेशरूपी रानी
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