________________
आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
ने दो वर माँगकर जहाँ अयोध्या में आनंद का सागर उमड़ रहा था, शोक का विष घोल दिया । वे दो वर कौनसे थे, यह आप सब जानते ही हैं - (१) राम के बदले भरत को राज्य देना और (२) राम को चौदह वर्ष के लिए वनवास
कराना ।
८५
दशरथ पर तो इन वरों के माँगते ही मानों वज्रपात हो गया, किन्तु करते क्या ? वचन भंग करना भी असंभव था । कहा भी है
'रीति सदा चलि आई ।
रघुकुल प्राण जाँय पर वचन न जाई ।
तो एक ओर पुत्र-वियोग और दूसरी ओर वचन का उल्लंघन । दशरथ शोक-सागर में डूब गए । पर स्वयं राम ने आकर उन्हें अपने कर्तव्य पर हढ़ रहने का साहस बँधाया । उन्होंने परम हर्षपूर्वक सविनय कहा – “पिताजी ! आपको दोनों वर मेरी माता को प्रसन्नतापूर्वक देने चाहिए, क्योंकि आपने वचन दिया था । इसके अलावा इसमें क्या फर्क पड़ेगा चाहे मैं अयोध्या में रहूँ या वन में ? दोनों जगह मेरी वही स्थिति रहेगी । उलटे मुझे इस बात का हर्ष होगा कि मैंने अपने पिता को वचन भंग नहीं करने दिया । पुत्र तो होना ही ऐसा चाहिए जो पिता का व अपने कुल का मान एवं गौरव बढ़ाये ।"
यह कहकर राम ने दशरथ को शांति प्रदान की तथा अपने आपको सुपुत्र साबित किया । वास्तव में ही पुत्र अगर सदाचारी, सुशील एवं आज्ञापालक होता है तो पिता को अनेकानेक चिंताओं से एवं दुःखों से बचा सकता है ।
श्री स्थानांगसूत्र में चार प्रकार के पुत्र बताए गये हैं
चत्तारि सुता -
अतिजाते, अणुजाते, अवजाते, कुलिंगाले ।
अर्थात् — पुत्र चार प्रकार के होते हैं - कुछ पुत्र गुणों की दृष्टि से अपने पिता से बढ़कर होते हैं; कुछ पिता के समान होते हैं, कुछ पिता से हीन और कुछ तो कुल का सर्वनाश करने वाले कुलांगार पैदा होते हैं ।
राम गुणों में अपने पिता से भी बढ़कर थे और रावण कुल का सर्वनाश करने वाला कुलांगार । इसी प्रकार पांडव अपने पिता और कुल का गौरव बढ़ाने वाले थे, तथा दुर्योधन एवं दुःशासन आदि कुल को कलंकित और नष्ट करने वाले कुलांगार । ऐसे पुत्रों से तो पुत्र का न होना ही अच्छा होता है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org