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इहलोक मोठा, परलोक कोणे बिठा
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हो गये हैं, किन्तु इसका सम्बन्ध हमारे विषय से ही है । मैं आपको यह बता रहा था कि प्रदेशी राजा के मंत्री चित्त ने जब धर्म के महत्त्व को समझ लिया तो उसने अविलम्ब श्रावक के व्रतों को ग्रहण किया और नास्तिकता के मार्ग से हटकर आस्तिकता के मार्ग पर चल पड़ा, इस प्रकार स्व- दया अपनाई । किन्तु इसके बाद ही उसे अपने राजा की फिक्र हो गई । उसने सोचा - " महाराज पूर्णतया नास्तिक हैं, अतः धर्माचरण नहीं करते, किन्तु वे नित्य आत्मा को देखने के लिए निर्दोष प्राणियों की हत्या किया करते हैं । हिंसा के इस क्रूर पाप के कारण उनकी आत्मा की परलोक में क्या दशा होगी ? कितने घोर कष्टों को उसे भोगना पड़ेगा ।"
इस प्रकार राजा प्रदेशी के किसी भौतिक दुख को लेकर नहीं, अपितु उसकी आत्मा को भविष्य में दुःख उठाने पड़ेंगे इस बात को सोचकर वह अत्यन्त चिंतित हो उठा, और विचार करने लगा कि उन्हें सुमार्ग पर लाने के लिए क्या उपाय किया जाय ?
चित्त की चतुराई
बहुत विचार करने पर चित्त मंत्री को सर्वप्रथम तो यही सूझा कि किसी प्रकार केशी स्वामी अगर हमारे नगर में पधारें तो सम्भव है कि हमारे महाराज के विचार बदल जायँ और वे अपने हिंसक कार्यों से बच सकें । यह बात मन में आने पर चित्त मंत्री ने अगले दिन ही केशी स्वामी से निवेदन किया
“भगवन् ! आप हमारे नगर की ओर पधारने का कष्ट करें तो आपका बड़ा अनुग्रह होगा तथा हम लोगों का कल्याण हो सकेगा ।"
केशी स्वामी ने कुछ सोच-विचार कर एक दृष्टांत सहित उत्तर दिया" मंत्रिवर ! जिस बगीचे में खाने के लिए फल-फूल हों और पीने के लिए स्वच्छ तथा निर्मल जल भी हो, अर्थात् सभी प्रकार की अनुकूलता हो, किन्तु वहाँ शिकारी जानवरों के आने का भय हो तो ऐसे स्थान पर पशु-पक्षी भी नहीं जाते, फिर विद्वान या बुद्धिमान् मनुष्य कैसे जायेगा ?"
केशी श्रमण आगे बोले - "चित्त ! तुम्हारा प्रदेश अच्छा है और वहाँ सभी प्रकार की सुविधाएँ हैं । धर्मात्मा पुरुष भी निवास करते हैं, पर राजा तो धर्मविरोधी है । अतः वह हमारी साधना में विघ्न उपस्थित करेगा । ऐसी स्थिति में हम वहाँ आकर क्या कर सकते हैं ?"
चित्त मंत्री ने महाराज की बात ध्यान से सुनी किन्तु वह चतुर व्यक्ति था । अब पुनः प्रार्थना करते हुए बोला
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