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अश्रद्धा परमं पापं, श्रद्धा पाप-प्रमोचिनी
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. साधक के लिए ये दोनों परहेज आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हैं। क्योंकि अश्रद्धालु व्यक्ति स्वयं को तो पतन की ओर ले जाता ही है, साथ ही अपनी संगति में रहने वाले व्यक्ति को भी कुमार्गगामी बना देता है । फल यह होता है कि उन व्यक्तियों का जीवन कुसंग के कारण निरर्थक चला जाता है । और तो और बड़े-बड़े साधक तथा संयमी भी कुसंगति के कारण विचलित होकर अपनी साधना को मिट्टी में मिला देते हैं ।
कुसंगति का परिणाम किसी शहर के राजा ने सुना कि हमारे शहर से कुछ दूर वन में एक महात्मा रहते हैं जो केवल कन्द-मूल खाकर और निर्झर का पानी ग्रहण करके ही सतत् अपनी साधना में लगे रहते हैं। कभी भी वे शहर में नहीं आते और न ही किसी को अपने पास दर्शनार्थ आने देते हैं।
राजा ने जब उन संत की इतनी प्रशंसा सुनी तो उनके दर्शन करने का विचार किया और अपने मन्त्री को इसी उद्देश्य से संत के पास भेजा । मन्त्री ने जाकर संत से राजा की इच्छा जाहिर की और उन्हें अपने पास आने की आज्ञा देने के लिए निवेदन किया।
संत ने तो यह सुनकर वह स्थान ही छोड़कर अन्यत्र जाने का उपक्रम किया, किन्तु मन्त्री के बहुत अनुनय-विनय करने पर अपना विचार स्थगित करके राजा को एक बार आने की अनुमति दी। . इस पर राजा एक दिन अपने परिवार सहित महात्माजी के दर्शनार्थ आए। संत की सौम्य-मुद्रा एवं त्याग-तपस्या से प्रभावित होकर उन्होंने संत से प्रार्थना की कि वे कुछ दिन शहर में पधारें और राजमहल के बगीचे में ही ठहरकर स्वयं अपनी साधना करते हुए औरों को भी लाभान्वित करें।
पहले तो यह बात सुनकर संत भड़क गये और क्रोधित हुए, किन्तु राजा के बार-बार कहने पर कुछ दिनों के लिए शहर में आने को अपनी अनिच्छा के बावजूद भी तैयार हुए।
राजा उसी समय उन्हें सादर ले गये और अपने महल के बगीचे में स्थित एक सुन्दर भवन में उन्हें ठहराया। भवन बड़ा विशाल एवं ऐश्वर्य के सम्पूर्ण साधनों से परिपूर्ण था । अनेक दास एवं सुन्दर दासियाँ उनकी सेवा में नियुक्त की गयीं तथा उनके भोजन के लिए राजसी व्यञ्जनों का प्रबन्ध कर दिया गया ।
इसके बाद राजा कुछ राज्य कार्यों में ऐसे व्यस्त हुए कि संत के पास कई दिनों तक पहुँच ही नहीं पाये । पर एक दिन जब वे पुनः उनके पास पहुंचे तो
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