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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
पर यह जानते हुए भी व्यक्ति दयाधर्म की परवाह नहीं करते और शील रूपी धन की कद्र न करके उसे निरर्थक बना देते हैं ।
(३) लज्जा - यह व्यक्ति का तीसरा धन बताया गया है। हिंसा, चोरी, असत्य एवं अन्य किसी भी प्रकार के पापाचरण से अपने परिवार या कुल में कलंक लगेगा इस तरह की भावना रखना लज्जा-धन कहलाता है । जो अज्ञानी पुरुष इस बात को नहीं समझता वह धीरे-धीरे पतन के मार्ग पर बढ़ता चला जाता है । क्योंकि जीवन में अगर एक भी दुर्गुण आ गया और उसके लिए मानव के मन में लज्जा का उदय न हो तो उस दुर्गुण के अन्य साथी भी शनैःशनैः अवश्य आ इकट्ठे होते हैं ।
(४) अवत्रप्य या लोकापवाद का भय – मनुष्य के हृदय में अगर लोकापवाद का भय भी बना रहे तो वह अपने मानस को सद्गुण युक्त बना सकता है । हमारा मूल विषय अभी 'अज्ञान - परिषह' पर चल रहा है । और तो और कभी-कभी साधु भी अज्ञान के कारण अपने व्रतों के लिए तथा संयम अपना लेने के लिए पश्चात्ताप कर बैठते हैं कि इस जीवन से तो संसार के सुखों का उपभोग करना अच्छा था । किन्तु मन में ऐसे विचार आने पर भी अगर उन्हें अपने वेश का ध्यान रहता है तथा उसे छोड़ देने से लोकापवाद होगा, ऐसा भय रहता है तो वे किसी दिन अपने सही मार्ग पर पुनः आ जाते हैं । इसलिए लोकापवाद के भय को भी आन्तरिक धन बताया गया है ।
(५) श्रुत - वीतराग - प्ररूपित सच्चे ज्ञान का श्रवण करना श्रुत धन कहलाता है । आज की दुनिया में साधु वेशधारी अनेक प्रकार के उपदेशकों की कमी नहीं है । किन्तु वेश परिवर्तन कर लेना ही सच्चे साधुत्व का लक्षण नहीं है | सच्चे साधु को वेश के साथ-साथ अपने मन, बुद्धि एवं आत्मा का भी परिवर्तन करना पड़ता है । और इस प्रकार अगर आन्तरिक परिवर्तन न किया जाय तो उसके अभाव में बाह्य वेश का परिवर्तन कुछ भी महत्त्व नहीं रखता ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भी है
न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बम्भणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥
- अध्ययन २५
अर्थात् — केवल सिर मुड़ा लेने से कोई साधु नहीं बन जाता और न ही ओंकार शब्द का जप करने से कोई ब्राह्मण हो सकता है । इसी प्रकार केवल अटवी में निवास कर लेने से ही न कोई मुनि हो सकता है और न डाभ यानी घास का वस्त्र पहन लेने से ही कोई तपस्वी कहला सकता है ।
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