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अश्रद्धा परमं पापं, श्रद्धा पाप-प्रमोचिनी
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अर्थात्--अश्रद्धा महापाप है और श्रद्धा पापनाशक । इसलिए विवेकी और श्रद्धाशील प्राणी पापों का इस प्रकार परित्याग कर देता है, जिस प्रकार सर्प अपनी पुरानी केंचुली को छोड़कर बिना पीछे मुड़कर उसकी ओर देखता हुआ सरपट वहाँ से भाग जाता है । ___ वास्तव में ही अश्रद्धा घोर पाप है । क्योंकि संसारी जीव जो अनन्त काल से नाना योनियों में भ्रमण करता हुआ नाना प्रकार की यातनाएँ भोग रहा है वह केवलमात्र अश्रद्धा के कारण ही। उसके संसार-भ्रमण में मूल कारण अश्रद्धा या श्रद्धाविहीनता ही है। हमारे जैनशास्त्र पुनः-पुन: यही कहते हैं कि अगर जीव में सम्यक्श्रद्धा आ जाय तो वह पापों से बचता हुआ निश्चय ही अपने भव-भ्रमण को कम करता चला जाता है क्योंकि सच्ची और दृढ़ श्रद्धा के समीप पाप नहीं फटक सकते ।
खेद की बात तो यह है कि आज बड़े-बड़े शास्त्रों के ज्ञाता और अपने आपको आस्तिक कहने वाले भी नास्तिकों के समान ही विचार और आचरण करते हैं। इसीलिए वे न तो अपने आपको पाते हैं और न जगत् को ही पा पाते हैं। श्रद्धा का अभाव उनके जीवन को अशांति, भीरुता और संकीर्णता से भर देता है तथा ज्ञान को निष्फल बना देता है । ज्ञान की सम्पूर्ण शक्ति श्रद्धा में निहित होती है । अतः श्रद्धावान ज्ञानी न होने पर भी संसार-सागर से पार उतर जाता है और ज्ञानी श्रद्धा के अभाव में अपनी पीठ पर ज्ञान का बोझ लादे हुए भी उसमें गोते लगाता रहता है ।
श्रद्धा अंधी नहीं होती प्रायः कुछ लोग कहा करते हैं कि श्रद्धा में अंधता होती है और अन्धा व्यक्ति जिस प्रकार बिना सोचे-समझे या देखे-भाले चल पड़ता है तथा कदमकदम पर ठोकरें खाता है, उसी प्रकार श्रद्धा से अन्धा हुआ व्यक्ति भी संसार में ठोकरें खाता रहता है। ___ऐसा कहने वाले नासमझ व्यक्तियों को समझना चाहिए कि उनका यह कथन सर्वथा मिथ्या एवं असंगत है। क्योंकि सम्यश्रद्धा का पूर्ण सहायक विवेक होता है। श्रद्धाशील व्यक्ति अपने विवेक के द्वारा पाप-मार्ग और पुण्यमार्ग के अन्तर को समझता है तथा भली-भाँति जान लेता है कि उसे किस मार्ग पर चलना है ? अपने विवेकरूपी नेत्रों से वह संवर और निर्जरा के मार्ग को देखता है तथा आश्रव-मार्ग का परित्याग करके उन पर एकनिष्ठ होकर बढ़ता है। इसलिए विवेकयुक्त श्रद्धालु कभी ठोकरें नहीं खाता और किसी भी कदम पर शंका या अविश्वास को न आने देता हुआ अपने मानव जीवन के उच्चतम 'लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है ।
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