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धर्माचरण निरर्थक नहीं जाता
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पहुँचने में देर न हो जाए इससे शीघ्रतापूर्वक चलते हुए किसी को ठोकर लगा दी तो समझो कि पाप आत्मा के समीप आ गया । परन्तु उसी समय जिसे ठोकर लगी थी, उससे हाथ जोड़कर हार्दिक पछतावे के साथ क्षमा माँग ली तो समझो कि पाप से बचाव हो गया । शर्त केवल यही है कि अपने मन, वचन और शरीर से की गई भूल के लिए पश्चात्ताप भी सच्चे और शुद्ध अन्तःकरण से किया जाय । बनावटी और दिखावे का पश्चात्ताप पापों से कदापि छुटकारा नहीं दिला सकेगा ।
ध्यान में रखने की बात है कि प्रत्येक क्रिया के पीछे भावनाएँ जैसी होती हैं, फल वैसा ही मिलता है । जिस प्रकार दिखावे की क्षमा-याचना पाप से छुटकारा नहीं दिला सकती, इसी प्रकार दिखावे की भक्ति और साधना भी शुभ कर्मों का संचय नहीं कर सकती । इसलिए शुभक्रियाएँ भले ही शारीरिक क्षमता के अनुसार सही और पूर्णरूप से न हो सकें तो भी साधक को अपनी भावनाएँ सही और श्रेष्ठ रखनी चाहिए। एक छोटा सा उदाहरण है -
महत्त्व शब्दों का या भावनाओं का ?
एक वृद्ध फकीर बड़े सरल, शुद्धात्मा एवं खुदा के सच्चे भक्त थे । अपना अधिकांश समय वे खुदा की इबादत या नमाज पढ़ने में व्यतीत किया करते थे । हमेशा सही वक्त पर नमाज पढ़ते थे और अल्लाह से दुआ माँगते थे ।
एक बार जब वे नमाज पढ़ रहे थे तो एक अन्य व्यक्ति भी उनके पास बैठा था । फकीर को अरबी भाषा अच्छी तरह नहीं आती थी, अतः नमाज पढ़ते वक्त उनकी जुबान से एक स्थान पर अलहम्द की बजाय अहलमद उच्चरित हो गया ।
समीप बैठे हुए व्यक्ति ने जब शब्द का इस प्रकार गलत उच्चारण सुना तो वह फकीर का उपहास करता हुआ बोला - "फकीर साहब ! इस प्रकार नमाज के शब्दों का गलत उच्चारण करने से खुदा आपसे कभी प्रसन्न नहीं होगा ।"
फकीर बड़ा सहनशील था । उसने उपहास करने वाले व्यक्ति की बात का तनिक भी बुरा न मानते हुए सहजभाव से उत्तर दिया
"भाई ! भाषा की अज्ञानता के कारण मुझसे नमाज पढ़ते समय शब्दों की अनेक भूलें हो जाती हैं, किन्तु खुदा मेरे शब्दों को नहीं, वरन् भावनाओं को अवश्य ही समझ लेगा । क्योंकि मेरी भावनाओं में कहीं दिखावा, ढोंग या छल नहीं है और मुझे इसीलिए पूरा विश्वास है कि मेरे गलत शब्द मुझे खुदा से मिलने में बाधक नहीं बनेंगे ।"
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