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________________ धर्माचरण निरर्थक नहीं जाता ५१ पहुँचने में देर न हो जाए इससे शीघ्रतापूर्वक चलते हुए किसी को ठोकर लगा दी तो समझो कि पाप आत्मा के समीप आ गया । परन्तु उसी समय जिसे ठोकर लगी थी, उससे हाथ जोड़कर हार्दिक पछतावे के साथ क्षमा माँग ली तो समझो कि पाप से बचाव हो गया । शर्त केवल यही है कि अपने मन, वचन और शरीर से की गई भूल के लिए पश्चात्ताप भी सच्चे और शुद्ध अन्तःकरण से किया जाय । बनावटी और दिखावे का पश्चात्ताप पापों से कदापि छुटकारा नहीं दिला सकेगा । ध्यान में रखने की बात है कि प्रत्येक क्रिया के पीछे भावनाएँ जैसी होती हैं, फल वैसा ही मिलता है । जिस प्रकार दिखावे की क्षमा-याचना पाप से छुटकारा नहीं दिला सकती, इसी प्रकार दिखावे की भक्ति और साधना भी शुभ कर्मों का संचय नहीं कर सकती । इसलिए शुभक्रियाएँ भले ही शारीरिक क्षमता के अनुसार सही और पूर्णरूप से न हो सकें तो भी साधक को अपनी भावनाएँ सही और श्रेष्ठ रखनी चाहिए। एक छोटा सा उदाहरण है - महत्त्व शब्दों का या भावनाओं का ? एक वृद्ध फकीर बड़े सरल, शुद्धात्मा एवं खुदा के सच्चे भक्त थे । अपना अधिकांश समय वे खुदा की इबादत या नमाज पढ़ने में व्यतीत किया करते थे । हमेशा सही वक्त पर नमाज पढ़ते थे और अल्लाह से दुआ माँगते थे । एक बार जब वे नमाज पढ़ रहे थे तो एक अन्य व्यक्ति भी उनके पास बैठा था । फकीर को अरबी भाषा अच्छी तरह नहीं आती थी, अतः नमाज पढ़ते वक्त उनकी जुबान से एक स्थान पर अलहम्द की बजाय अहलमद उच्चरित हो गया । समीप बैठे हुए व्यक्ति ने जब शब्द का इस प्रकार गलत उच्चारण सुना तो वह फकीर का उपहास करता हुआ बोला - "फकीर साहब ! इस प्रकार नमाज के शब्दों का गलत उच्चारण करने से खुदा आपसे कभी प्रसन्न नहीं होगा ।" फकीर बड़ा सहनशील था । उसने उपहास करने वाले व्यक्ति की बात का तनिक भी बुरा न मानते हुए सहजभाव से उत्तर दिया "भाई ! भाषा की अज्ञानता के कारण मुझसे नमाज पढ़ते समय शब्दों की अनेक भूलें हो जाती हैं, किन्तु खुदा मेरे शब्दों को नहीं, वरन् भावनाओं को अवश्य ही समझ लेगा । क्योंकि मेरी भावनाओं में कहीं दिखावा, ढोंग या छल नहीं है और मुझे इसीलिए पूरा विश्वास है कि मेरे गलत शब्द मुझे खुदा से मिलने में बाधक नहीं बनेंगे ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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