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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
समीपस्थ व्यक्ति भावनाओं के सच्चे महत्त्व को समझ गया और फकीर के प्रति किये गये अपने उपहास के लिए स्वयं ही लज्जित होता हुआ तथा उस पर पश्चात्ताप करता हुआ वहाँ से चला गया । ___ कहने का अभिप्राय यही है कि जो सच्चा साधक होता है और अपनी की गई शुभ क्रियाओं के प्रति, उसमें रही हुई कमियों के प्रति और छद्मस्थ अवस्था के कारण हो जाने वाली भूलों के प्रति भी अविश्वास एवं अश्रद्धा नहीं रखता तथा उनके द्वारा प्रत्यक्ष फल प्राप्त न होने पर भी खेद प्रकट नहीं करता । वह शनैः-शनैः संवर के मार्ग पर बढ़ता हुआ एक दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में अवश्य समर्थ बन जाता है। किन्तु जो व्यक्ति थोड़ा सा शुभ कर्म या कुछ शुभ क्रियाएँ करके ही उनके फल की प्राप्ति की आशा करता है और ऐसा न होने पर अपने उन कार्यों को निरर्थक मानने लगता है वह आश्रव के कुपथ पर चलकर अपनी आत्मा की शोचनीय दशा बना लेता है । सामायिक से घाटा नहीं होता
एक बार की बात है कि हमने पूना से विहार किया और उस समय एक पचास या संभवतः साठ वर्ष की उम्र के व्यक्ति हमें कुछ दूर तक पहुंचाने के लिए साथ चले।
मार्ग में चलते-चलते मैंने सहज भाव से उनसे पूछ लिया- "क्यों साहब ! आप सामायिक तो प्रतिदिन करते हैं ?"
"नहीं महाराज ! मैं तो सामायिक नहीं करता।" उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया।
सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । और मैंने कहा_ "ऐसा क्यों ? आपकी उम्र तो अब बहुत हो गयी है और आप बिलकुल नास्तिक हो ऐसा भी नहीं लगता, क्योंकि प्रायः आप प्रवचन में आया करते हैं
और इस समय हमें पहुंचाने में भी साथ ही हैं, यह लक्षण धर्म-भावना से रहित व्यक्ति जैसे तो नहीं हैं। फिर सामायिक-प्रतिक्रमण के बारे में आपकी ऐसी उपेक्षा क्यों ?"
वे सज्जन बोले-"महाराज ! असली बात यह है कि मेरे पिताजी रोज सामायिक करते थे, पर उनको बहुत घाटा लगा इसलिए उन्होंने सामायिक करना छोड़ दिया था और मुझे भी न करने का आदेश दिया था । बस, इसीलिए मैं सामायिक नहीं करता और कोई बात नहीं है।"
उस सज्जन की सरल और स्पष्ट बात सुनकर मुझे हँसी आ गई पर मैंने
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