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सत्य ते असत्य दिसे
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'आचारांग सूत्र' में कहा भी है
वितहं पप्पऽखयन्ने,
तम्मि ठाणम्मि चिट्टइ। अर्थात्- अज्ञानी साधक जब कभी असत्य विचारों को सुन लेता है, तो वह उन्हीं में उलझकर रह जाता है ।
परिणाम यह होता है कि वह साधुत्व ग्रहण करके और महाव्रतों को अंगीकार करके भी नासमझी के कारण सोचने लगता है-"मैंने निरर्थक ही संसार के सुखों का त्याग किया, अच्छा तो यही था कि मानव-जन्म पाकर संसार के सुखों का उपभोग करता।" ___ इस प्रकार वह सांसारिक सुखों को जोकि नकली हैं, असली समझने लगता है और आत्मिक सुख जो कि असली हैं, उन्हें नकली मानकर साधु-वेश धारण कर लेने पर भी पश्चात्ताप में डूबा रहता है और अपने मन को सांसारिक प्रवृत्तियों में रमाता हुआ घोर कर्मों का बन्धन करके आत्मा को अधिकाधिक बोझिल बना लेता है । इसलिए प्रत्येक आत्मार्थी साधक को अज्ञानपने से बचते हुए बड़ी सावधानी से संवर-मार्ग पर चलना चाहिए, तभी आत्मा की सद्गति हो सकती है।
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