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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
रखता हुआ धैर्य पूर्वक विचार कर कि तूने पूर्व में जिन कर्मों का संचय किया है वे शुभ हों या अशुभ, भोगने ही पड़ेंगे ।
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वस्तुतः कर्मों की गति बड़ी विचित्र होती है । एक पाप कर्म भी अपना बदला लिए नहीं रहता चाहे व्यक्ति उसके बदले में हजार शुभ कर्मों का फल न्योछावर कर दे । उदाहरणस्वरूप एक व्यक्ति किसी से अपनी हीनावस्था में एक रुपया कर्ज ले ओर भाग्योदय के कारण बाद में अपार सम्पत्ति का स्वामी बनकर उसी को दान में एक हजार रुपया दे दे, तब भी वह एक रुपया तो जब कर्ज के बतौर चुकाएगा तभी कर्ज उतारना माना जाएगा । विचार करने की बात है कि दाता उसी व्यक्ति को हजार रुपया दान में देने से उसके अनुसार पुण्य कर्मों का संचय तो अवश्य कर लेगा, किन्तु अगर वह कर्ज में लिया हुआ एक रुपया भुगतान की भावना से नहीं देगा तो उस एक रुपये का कर्जदार अवश्य बना रहेगा और उसे चुकाने पर ही कर्ज से मुक्त माना जाएगा ।
इसीलिए कवि ने श्लोक में मन को बोध देते हुए कहा है कि - "संचित शुभ एवं अशुभ कर्मों का फल तो तुझे निश्चय ही भोगना पड़ेगा अतः अशुभ कर्मों का उदय होने पर भी तू मन में खेद मत कर तथा यही सुविचार कर कि इस संसार में कोई भी ऐसा नहीं है जिसने पूर्व में केवल शुभ कर्म ही संचित किये हैं और उनके कारण वह केवल सुखों को ही प्राप्त कर रहा है । अपितु यह विचार कर कि इस जगत में सभी प्राणी ऐसे हैं जिनके शुभ और अशुभ, दोनों ही प्रकार के कर्मों का संचय होता है और वे भी कर्मों के अनुसार कभी दुःख और कभी सुख की प्राप्ति करते हैं ।"
अगर प्रत्येक मुमुक्षु साधु इस प्रकार अपने मन को बोध देता है तथा कर्मों की क्रिया को समझ लेता है तो उसके मन में यह विचार नहीं आता कि मैंने उपवास-आयम्बिल किये, बारह प्रतिमाएँ धारण की, साधुचर्या के अनुसार विचरण किया किन्तु इतना सब करने पर भी मुझे कोई लाभ नहीं हुआ अतः यह सब मैंने व्यर्थ किया और इससे अच्छा तो सांसारिक सुखों का उपभोग करना ही था ।
बन्धुओ, छद्मस्थ भाव दूर होकर अतिशय का बढ़ना, सिद्धियों का हासिल होना और विशिष्ट ज्ञान या केवल ज्ञान की प्राप्ति का होना तो चारों प्रकार के घातिक कर्मों का क्षय होने पर निर्भर है । अतः जब तक पूर्व कर्म शेष हैं, उनका भुगतान बाकी है, दूसरे शब्दों में आत्मा पूर्णतः शुद्ध एवं कर्म - रहित नहीं है, तब तक कुछ धर्म - क्रियाएँ कर लेने से या तपादि का अनुष्ठान कर लेने से ही पूर्णता हासिल कैसे हो सकेगी ?
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