________________
. सत्य ते असत्य दिसे
३९
नहीं है अपितु वीतराग-वाणी में श्रद्धा होना श्लोक के अनुसार प्रथम प्रकार का धन है।
(२) शील-इस विशाल संसार में व्यक्ति के लिए माया, ममता, यश आदि अनेक प्रकार के आकर्षण हैं जिनके वश में होकर वह अपने आपको या अपनी आत्मा की भलाई को भूल जाता है किन्तु इन सब आकर्षणों से बढ़कर जो आकर्षण है, वह है काम-विकार । इसे जीतना संसार में सबसे कठिन है । मूों की तो बात छोड़ भी दी जाय पर बड़े-बड़े विद्वान और ज्ञानी भी कभीकभी इसके चंगुल में फँसकर अपना यह लोक और परलोक दोनों ही बिगाड़ बैठते हैं। किन्तु अनेक इन्द्रिय विजयी पुरुष ऐसे भी होते हैं जो लाख प्रयत्न करने पर भी अपने मन को शील-धर्म से पराङ मुख नहीं करते । सेठ सुदर्शन ऐसे ही भव्य प्राणी थे, जिन्होंने सूली पर चढ़ना कबूल कर लिया किन्तु अपने धर्म से च्युत नहीं हुए।
पूज्य श्री अमीऋषिजी महाराज ने भी कुशील का त्याग करने की प्रेरणा देते हुए कहा हैपरतिय संग किये हारे कुल कान दाम,
नाम धाम धरम आचार दे विसार के । लोक में कुजस, नहीं करे परतीत कोउ,
प्रजापाल दंडे औ विटंबे मान पारि के । पातक है भारी दुःखकारी भवहारी नर,
कुगति सीधावे वश होय परनारि के। यातें अमीरिख धारे, शियल विशुद्ध चित्त,
तजो कुव्यसन हित-सीख उर धारि के ॥ वस्तुतः कुशील का सेवन करने वाले अधम पुरुष अपने कुल का गौरव, यश, मान-मर्यादा तथा धन आदि सभी खो बैठते हैं तथा संसार में कुकीति के भाजन बनकर दुर्गति में जाते हैं । जवानी के जोश में अन्धे होकर वे यह भी नहीं सोचते कि आखिर यह उम्र रहती भी कितने दिन तक है ? कहा भी है किसी शायर ने
रहती है कब बहारे जवानी तमाम उम्र ?
मानिन्द बूये गुल, इधर आई, उधर गई । अर्थात्-युवावस्था की बहार भी कोई उम्र भर थोड़े ही रहती है यह तो पुष्प की सुगन्ध के समान इधर से आकर उधर चली जाती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org