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सत्य ते असत्य दिसे . ३१
अज्ञान के दुष्परिणाम
अज्ञानावस्था प्रत्येक व्यक्ति के लिए चाहें वह श्रावक हो या साधु, महान् अनिष्टकारी है। ऐसी स्थिति में प्राणी सत्य को असत्य और असली को नकली समझने लगता है । साथ ही वह असली को नकली एवं असत्य को ही सत्य मानकर जीवन के उद्देश्य को भूल जाता है तथा संवर-मार्ग से भटककर आश्रव की ओर बढ़ने लगता है । ऐसा व्यक्ति पशु से भी गया बीता माना जा सकता है क्योंकि पशु कम से कम अपने मालिक के इशारे पर तो चलता है । मराठी भाषा के एक पद्य में तो अज्ञानी प्राणी की भर्त्सना करते हुए कहा है
सत्य ते असत्य दिसे, त्यास या जगी।
बोध करूनी लाभ काय होय मगजनी ॥ कहते हैं कि ऐसे अभागे व्यक्ति को उपदेश देने से भी क्या लाभ है, जो सत्य को असत्य मानता है और बोध देने पर भी उसे ग्रहण नहीं करता।
वस्तुतः जो बुद्धिहीन तो है ही, साथ ही वीतराग के वचनों पर और संतमहात्माओं के उपदेश देने पर भी सही मार्ग पर नहीं चलता उसे पशु से गयाबीता कहने में अत्युक्ति नहीं है । पशुओं में इतनी बुद्धि नहीं होती कि वे स्वयं सही मार्ग पर बढ़ सकें, किन्तु घुड़सवार के संकेत करते ही घोड़ा और गाड़ीवान के लगाम खींचते ही बैल उनके इशारों को समझ लेते हैं और निर्देशित मार्ग की ओर मुड़कर चल पड़ते हैं । __ पर इसके विपरीत निर्बुद्धि और अज्ञानी व्यक्ति तनिक सा परिषह सामने आते ही श्रावक के व्रतों को या साधू के महाव्रतों को भी निरर्थक मानने लग जाते हैं और सांसारिक सुखों का त्याग कर देने के लिए पश्चात्ताप करते हैं। कदाचित् लोकलज्जा से वे अपने बाने का त्याग नहीं भी कर पाते, किन्तु मन की भावनाओं से संसार के भोगों में गृद्ध होकर कर्म-बंधन कर लेते हैं। शास्त्रों में कहा भी है
अणाणाय पुट्ठा वि एगे नियति, मंदा मोहेण पाउडा।
-आचारांगसूत्र १-२-२ अर्थात्-अज्ञानी साधक संकट आने पर धर्मशासन की अवज्ञा करके फिर संसार की ओर लौट पड़ते हैं ।
संकट का अर्थ परिषह ही है । अज्ञान परिषह भी संकट है और जो साधक इसे नहीं जीत पाते वे या तो अपने व्रत, वेश एवं इनके योग्य आचरणों का भी
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