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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
त्याग करके पुनः संसार में लिप्त हो जाते हैं और नहीं तो अपनी अवस्था पर पश्चात्ताप करते हुए भावनाओं से उसमें गृद्ध रहते हैं । दोनों ही स्थितियाँ घोर कर्म-बन्धन का कारण बनती हैं। मुख्य रूप से तो भावनाएँ पहले आत्मा को पतित करती हैं और उसके पश्चात् आचरण को ।
जब अज्ञान का अँधेरा आत्मा पर छा जाता है तो साधु अपने संयम से विचलित हो जाता है और श्रावक अपने व्रतों से । अनेक व्यक्ति तो लोकलज्जा से दान देकर भी बाद में उसके लिए पश्चात्ताप करते हैं और उनसे जघन्य व्यक्ति आहार दान देकर भी अफसोस करने लगते हैं । इन सबका परिणाम कर्म - बन्धन ही होता है । साधक साधना की क्रियाओं को करता हुआ भी अगर खेदखिन्न बना रहता है तो उसकी साधना उसी प्रकार निष्फल जाती है, जैसेजहण्हाउतिण्ण गओ, बहुअंतरं रेणुयं छुभइ अंगे । सुट्ठ वि उज्जममाणो, तह अण्णाणो मलं चिणइ ॥
—बृहत्कल्पभाष्य ११४७
अर्थात् — जिस प्रकार हाथी स्नान करके फिर बहुत सारी घूल सूंड़ से अपने ऊपर डाल लेता है, वैसे ही अज्ञानी साधक साधना करता हुआ भी नया कर्म मल संचय करता जाता है ।
होना तो यह चाहिए कि साधक जिस निष्ठा और उत्साह से साधना मार्ग को ग्रहण करता है, उससे भी अधिक श्रद्धा और दृढ़तापूर्वक सम्पूर्ण संकटों या परिषहों पर विजय प्राप्त करता हुआ अपने निर्वाचित मार्ग पर बढ़ता चले किन्तु ऐसा सभी कर नहीं पाते क्योंकि सभी की आस्था एवं परिषहों को सहने की शक्ति समान नहीं होती ।
इसी विषय को लेकर 'ठाणांगसूत्र' में चार प्रकार के पुरुषों का वर्णन किया है
प्रथम प्रकार के पुरुष के विषय में कहा गया है कि वह सियार के समान डरता हुआ व्रतों को ग्रहण करता है, किन्तु धीरे-धीरे दृढ़ता धारण करता हुआ सिंह के समान उनका पालन करता है । अर्थात् कभी किसी के उपदेश को सुनकर भावुकता में आकर और कभी किसी की देखादेखी से भी व्रत ग्रहण कर लेता है । उस समय तो उसका मन कमजोर होता है किन्तु शनैः-शनैः वह दृढ़ता धारण कर लेता है और फिर मन एवं इन्द्रियों पर पूर्ण कण्ट्रोल करके शेर के समान व्रतों का पालन करता हुआ साधना के पथ पर बढ़ा चला जाता है ।
हरिकेशी मुनि के विषय में आप जानते ही हैं कि उनका जन्म चाण्डाल कुल में हुआ था तथा अपने अति अपमान एवं भर्त्सना से दुःखी होकर उन्होंने
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