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सत्य ते असत्य दिसे
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त्यागुनि माया नार, अजुनि तरी।
नरा करी सुविचार अजुनि तरी ॥ __ कवि का कथन है कि अज्ञान को अन्तर के अतल में भस्म करो और ज्ञान के द्वारा जीव, जगत्, पाप, पुण्य, बन्ध और मोक्ष पर सुविचार या चिन्तन करो।
हमारे बहुत से भोले बन्धु कह बैठते हैं-"अज्ञान ही अच्छा है जिसके कारण व्यक्ति को न मानसिक अशांति रहती है और न ही हृदय में किसी प्रकार की उथल-पुथल । वे तो यहाँ तक कहते हैं कि दुनिया भर की दुश्चिन्ताएँ ज्ञानी को सताती हैं, अज्ञानी तो परम सुखी रहता है क्योंकि उसके दिमाग को न तो परलोक की दौड़ लगानी पड़ती है और न ही संयम, साधना और त्यागादि के पचड़े में सिर खपाना पड़ता है। किसी ने तो संस्कृत में भी कह दिया है-"अज्ञानम् एव श्रेयः।"
किन्तु बन्धुओ, यह विचार कितना गलत है ? क्या अपनी आँखें बन्द कर लेने से कोई जीव आक्रमणकर्ता से बच सकता है ? नहीं, भले ही वह आक्रमणकारी को न देख पाए किन्तु आक्रमण करने वाला तो उसे भली-भाँति देखता है और दबोच ही लेता है । ठीक यही हाल अज्ञानी का होता है। भले ही वह ज्ञान-रूपी नेत्रों को बन्द करके काल की परवाह न करे तथा पाप-कर्म रूपी शत्रुओं को न समझे, पर क्या काल उसे छोड़ देता है, और पाप-कर्म उसे भूल जाते हैं ? नहीं, वे सब तो निश्चय ही अपने समय पर आक्रमण करते हैं और जीव को उस समय छुटकारा नहीं मिल सकता । जिस प्रकार आँखें बन्द कर लेने पर प्राणी कुछ क्षणों के लिए निश्चित रहता है, उसी प्रकार अज्ञानी भी केवल कुछ समय के लिए ही निश्चित रह सकता है।
आप कहेंगे-'कुछ समय क्या, पूरे जीवन भर अज्ञानी आनन्द से संसार के सुखोपभोग कर सकता है।' पर विचार करके देखिये कि जो जीव अनन्तकाल से संसार-भ्रमण करता चला आ रहा है और घोर कष्टों को भुगतता रहा है तथा भविष्य में भी वही क्रम जारी रहेगा यानी अनन्तकाल तक उसे पुनः दुःख उठाने पड़ेंगे, उस अनन्त समय की तुलना में यह एक जीवन क्या कुछ क्षणों के समान ही नहीं हैं ? क्या इन थोड़े से क्षणों में ज्ञान-नेत्रों को बन्द करके अज्ञानावस्था का मिथ्या-सुख उसे चिर-शांति या चिर-सुख का अनुभव करा सकेगा? कभी नहीं। इसीलिए भगवान कहते हैं
जावंतऽविज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतए ॥
-श्री उत्तराध्ययन सूत्र ६-१
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