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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
पद्य का अर्थ सरल और स्पष्ट है कि कर्मों की गति बड़ी विचित्र होती है, अतः कोई भी नर और नारी इनका उपार्जन मत करना । इन कर्मों को जीव हँसते खेलते बाँध तो सहज ही लेता है। किन्तु जब भोगने का समय आता है तो बड़ी मुश्किल सामने आती है। - और साहूकार तो हाथ-पैर जोड़ने पर पैसा लेने में कभी कमी कर देता है और दया करके ब्याज आदि छोड़ भी देता है, किन्तु पापकर्म रूपी साहूकार तो लाख मिन्नतें और प्रार्थनाएँ करने पर भी अपने हिसाब का अंशमात्र भी कम नहीं करता तथा पूरा का पूरा वसूल करके छोड़ता है। ' शास्त्रों में भी यह बात स्पष्ट रूप से बताई गई हैजं जारिसं पुव्वमकासि कम्मं ।
। तमेव आगच्छति संपराए॥
म. -सूत्रकृतांग १-५-२ - अर्थात्-अतीत में जैसा भी कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है।
इसीलिए भगवान पुनः-पुनः जीवों को बोध देते हैं कि कर्मों की विचित्रता और उनकी बारीकी को समझकर संवर-मार्ग पर चलते हुए पूर्व कर्मों की निर्जरा करों और नवीन कर्मों के संचय से बचो। कर्मों की विचित्रता इससे बढ़कर
और क्या होगी कि बँधे हुए कर्मों के लिए भी खेद, दुःख, शोक या आर्तध्यान करने से उनमें और भी वृद्धि होती जाती है। ... इसलिए साधक को बड़ी सतर्कता और सावधानी से कर्मों के उदय को परिषह समझकर उन्हें भी समभाव और शांतिपूर्वक सहन करना चाहिए । हमारा विषय इस समय प्रज्ञा-परिषह को लेकर चल रहा है । साधारण तौर से देखा जाय तो बुद्धि की मन्दता और उसका अभाव होने पर मन को दुःख होना कोई बड़ी बात नहीं है और इसके लिए दुःख करना पाप भी दिखाई नहीं देता।
किन्तु जब हम वीतराग की वाणी को सुनते हैं और गम्भीर चिंतन करते हैं तो महसूस होता है कि भगवान का आदेश यथार्थ है और इसमें कहीं भी शंका या सन्देह करना अपने पैरों पर आप ही कुल्हाड़ी मारना है। प्रज्ञा-परिषह भी ऐसा एक परिषह है जिसे अगर साधक जीत न पाए तो वह अनेक नवीन कर्मों का बन्ध कर देगा तथा आत्मा को संसार में अधिकाधिक भटकने के लिए बाध्य कर देगा।
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