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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
लगाना व्यर्थ है । सच्चा हज तभी हो सकता है जबकि बाहर का ध्यान छोड़कर अन्दर की ओर ध्यान दिया जाय ।
बन्धुओ ! ऐसे उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि जो व्यक्ति बाह्य-क्रियाओं और बाह्य-आडंबरों को ही कर्म-मुक्ति का कारण न मानकर आन्तरिक शुद्धि करते हैं वे अपने उद्देश्य में सफल होते हैं। यहाँ मेरा आशय यह कदापि नहीं है कि बाह्य-क्रियाएँ की ही न जाँय और उन्हें निरर्थक मानकर छोड़ दिया जाय मेरा अभिप्रायः यही है कि हमारी बाह्य-क्रियाओं और शुभ कर्मों के अनुसार ही हमारी अन्तर्भावनाएँ होनी चाहिए। आप पूजा-पाठ, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, दान एवं सेवा आदि जितने भी शुभ कर्म करते हैं, वे आचरण को उन्नत बनाते हैं तथा शुभ फल की प्राप्ति कराते हैं। किन्तु अगर वे सब केवल यश प्राप्ति और लोगों पर अपनी धार्मिकता का सिक्का जमाने के लिए ही किये गये तो उनसे रंचमात्र भी लाभ आत्मा को नहीं होता। आत्मा को लाभ यानी कर्मों की निर्जरा केवल तभी होगी, जबकि आपकी भावनाएँ भी उनके अनुरूप या उनसे बढ़कर होंगी । क्योंकि कार्य भले ही एक जैसे किये जाँय, पर कर्मबन्धन उनके पीछे रही हुई भावनाओं के अनुसार होता है इसमें तनिक भी संशय नहीं है। एक श्लोक में बताया गया है
मनसैवकृतं पापं, न शरीरकृतं कृतम्।
येनवालिङ्गिता कान्ता, तेनवालिङ्गिता सुता ॥ अर्थात्-पाप शरीर के द्वारा नहीं अपितु मन के द्वारा होता है । जिस शरीर से पत्नी का आलिंगन किया जाता है, उसी शरीर से पुत्री का भी। किन्तु एक ही जैसी क्रियाओं में भावनाओं का कितना अन्तर होता है ? एक में वासना का बाहुल्य होता है और दूसरी में शुद्ध वात्सल्य का । इसीलिए एक सरीखी क्रियाएँ होने पर भी दोनों के पीछे रही हुई भावनाओं के कारण उनके परिणामों में आकाश-पाताल का अन्तर हो जाता है ।
इसीलिए मैं आपसे कह रहा हूँ कि जिनके हृदय में कलुषित भावनाएँ नहीं होतीं तथा धन, मान एवं यश-प्रतिष्ठा की प्राप्ति का लोभ नहीं होता उनकी समस्त धर्म-क्रियाएँ एवं बाह्य-आचरण शुभ-कर्मों के बन्धन में सहायक बनते हैं और उन क्रियाओं के करने या न कर पाने पर भी पाप कर्मों का उपार्जन नहीं होता।
कवि जौक ने अपने एक शेर में कहा भी है
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