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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
कहने का आशय यही है कि सम्यक्त्वी जीव चाहे मनुष्य हों, तिर्यंच हों या नारकीय, पापकर्मों के फल उन्हें भोगने ही पड़ते हैं और उनके अनुसार दुःख और वेदना भी उन्हें उतनी ही होती है जितनी मिथ्यात्वी जीवों को होती है । किन्तु मिथ्यात्वी जहाँ रोते-झींकते हुए दुःखों को सहन करते हैं वहाँ सम्यक्त्वी कर्मों को पुराना कर्ज समझकर उन्हें समता और शान्ति से चुकाते हैं । परिणाम यह होता है कि उनके पूर्वकर्मों की निर्जरा तो होती रहती ही है साथ ही नवीन कर्मों की गठड़ी पुन: नहीं बँधती । ___ इसीलिए भगवान आदेश देते हैं कि ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से अगर हमें कुशाग्र बुद्धि की प्राप्ति न भी हो तो उसके लिए खेद नहीं करना चाहिए अपितु पापकर्मों का उदय समझकर उस अभाव को समभावपूर्वक सहन करना चाहिए । इसके साथ ही हमारा मुख्य लक्ष्य तो यह होना चाहिए कि पूर्व-कर्मों की निर्जरा हो और नवीन कर्मों का उपार्जन न हो क्योंकि कर्मों का बन्धन होना तो बहुत सरल है पर उनका भुगतान करना बहुत कठिन हो जाता है। __ प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह श्रावक हो या साधु, उसे वीतराग के वचनों पर विश्वास करते हुए अपनी आत्मा के दोषों को देखना चाहिए और उन्हें दूर करते हुए आत्मा को विशुद्ध बनाने का प्रयत्न करना चाहिए । यह तभी हो सकता है जबकि वह अपनी आत्मिक-शक्ति को पहचाने तथा औरों से अपनी तुलना करना छोड़ दे । अनेक भक्त अपनी आत्मा का उद्धार करने के लिए भगवान से प्रार्थना करते हुए देखे जाते हैं। कोई तो शिव से, कोई राम से, कोई हनुमान से और कोई अन्य देवताओं से याचना करते हैं कि 'मेरा अमुक कार्य सिद्ध करो।' वे भूल जाते हैं कि प्रत्येक कार्य की सिद्धि अपने परिश्रम से और अपने ही आत्मबल से होती है । अपनी आत्मा में जो अनन्त शक्ति छिपी हुई है, उसे न पहचानते हुए अन्य किसी के समक्ष दीन बनकर याचना करने मात्र से कुछ नहीं होता । एक संस्कृत के कवि ने चातक को सम्बोधन करते हुए कहा है
"रे रे चातक सावधान मनसा मित्र ! क्षणं श्रयताम्, अम्भोदा बहवोऽपि सन्ति गगने सर्वेपि नैतादृशाः । केचिद् वृष्टिभिराद्रयन्ति धरणी गर्जन्ति केचिद् वृथा,
यं यं पश्यति तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ॥ श्लोक में कहा गया है-“अरे मित्र चातक ! क्षणभर सावधान होकर मेरी बात सुनो । इस गगन में अनेक बादल हैं लेकिन सभी समान नहीं हैं। इनमें से कोई तो बरसकर पृथ्वी को गद्गद करते हैं और कोई वृथा ही गर्जना
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