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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
ऐसा करने पर ही उसकी आत्मा दोष-रहित बन सकेगी तथा उसकी क्रिया में विशुद्धता एवं दृढ़ता आएगी और एक बार जब क्रिया में शुद्धता आ जाएगी तो फिर पुनः पुन. अभ्यास के द्वारा वह इतनी मजबूत हो जायेगी कि कोई भी सांसारिक शक्ति उसे विचलित नहीं कर सकेगी। उसके उत्तम संस्कार इतने पुष्ट और प्रबल हो जाएँगे कि वे आगामो जन्मों में भी मन को संतुलित एवं शुद्ध रखने में सहायक बनेंगे। कहा भी है
"मनो हि जन्मान्तरसंगतिज्ञम् ।"
अर्थात्-आत्म प्रदेशों से अनुप्रेरित मनरूपी कोश में ही पूर्वजन्मों के संस्कार निहित रहते हैं और वही पूर्वजन्मों की संगति का एवं स्थिति का ज्ञाता होता है।
जो भव्य-प्राणी इस बात को समझ लेंगे वे सदा सावधान रहकर अपने संस्कार और आचरण को विशुद्धतर बनाए हुए मुक्ति-पथ पर अग्रसर हो सकेंगे।
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