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मानव जीवन की सफलता
आया और उसे मारने तथा गालियाँ देने लगा । बूढ़ा भी उससे बक-झक करता रहा ।
कहते हैं । कि उसी समय नारद ऋषि उधर से आ निकले और वृद्ध की दुर्दशा होती देखकर उससे बोले – “भाई; इस प्रकार कष्ट से जीवन क्यों बिता रहे हो ? तुम्हारा ही पाप तुम्हें मार रहा है। इसलिये या तो तुम वन में जाकर तपस्या करो अन्यथा मेरे साथ स्वर्ग चलो ।"
नारदजी की बात सुनते ही बूढ़ा क्रोध से लाल-पीला हो गया और बोला - "महाराज ! आप अपने रास्ते पर जाओ । मेरे बटे-पोते हैं, मुझे मारे चाहे गालियाँ दें. मेरे लिये यही स्वर्ग है । आपको इससे क्या मतलब है ?"
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नारदजी उस अज्ञानी व्यत्ति की मोह- ममता देखकर दंग रह गए । और सोचने लगे-- बुद्धिहीन व्यक्तियों की मोह-ममता बुढ़ापे में और भी बढ़ जाती है । ये हजारों कष्ट सहन कर लेंगे पर अ सक्ति को नहीं त्यागेंगे । यही कारण है कि इन्हें पुन: पुन: इस संसार में जन्म-मरण करते रहना पड़ता है ।
वस्तुतः मोह-ममता और विषयासक्ति ही समस्त अनर्थों का मूल है । संसार में हम देखते हैं कि हाथी और मृग आदि पशुओं को एक-एक इन्द्रिय के विषय का शिकार होकर भी अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है तो फिर मनुष्य तो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहता है तो फिर उसकी दुर्दशा का अनुमान कैसे लगाया जा सकता है ?
इसीलिये ज्ञानी पुरुष विषय भोगों से विमुख हो जाते हैं । वे भलीभाँति समझ लेते हैं कि संसार की ये भोग सामग्रियाँ उनके लिये भयंकर विडम्बना का कारण बन जायेंगी । वे अपने चित्त की धारा को विषय लालसा से निर्मूल कर देते हैं तथा निराकुल होकर आत्म-चिन्तन एवं आत्म-साधना में लग जाते हैं । आत्मा की अनन्त शक्ति पर पूर्ण विश्वास रखते हैं तथा उसके बल पर दान, शील, तप तथा भाव की आराधना करते हुये उससे भी आगे बढ़कर संयमी जीबन को अपनाते हैं तथा घोर परिषहों को भी समभाव पूर्वक सहकर आत्मिक दृढ़ता का अपूर्व उदाहरण ससार के समक्ष रखते हुए समस्त कर्मबंधनों से सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं ।
यही मानव जीवन को सार्थक करना कहलाता है । जो भव्य प्राणी अपने इस अमूल्य जीवन को सच्चे हृदय से सफल बनाना चाहते है, उन्हें निरन्तर अपना आत्म बल बढ़ाना चाहिये । आत्म बल के बढ़ने से इन्द्रियों की प्रबलता स्वयं ही कम होगी तथा विषयासक्ति घटती चली जायेगी । इस सबका
णाम यह होगा कि आत्मा का उत्थान होगा तथा मनुष्य का जीवन सफलता के राज-पथ पर अग्रसर होता चला जाएगा ।
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