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सुनकर हृदयंगम करो
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तो हमारा विषय आज यही चल रहा है कि हमें वीतराग के वचनों पर विश्वास करना चाहिये तथा उन्हें हृदयंगम करते हुए आचरण में उतारना चाहिये । अगर हमारे श्रुतज्ञान रूपी चक्षु उघड़े रहेंगे तो हमारा मन कभी भी निन्दित कर्मों को करके कर्मों का बन्धन नहीं करेगा। उलटे प्रतिक्षण यह विचार करेगा कि जीवन के अमूल्य क्षण एक-एक करते निकले जा रहे हैं और जीवन का कुछ भी लाभ नहीं मिल पा रहा है । ऐसी ही विचारधारा वाले किसी कवि ने कहा है
वे ही निसि वे ही दिवस, वे ही तिथि वे बार । वे उद्यम वे ही क्रिया, वे ही विषय विकार ।। वे ही विषय विकार, सुनत देखत अरु सूघत । वे ही भोजन भोग जागि सोवत अरु ऊँघत ॥ महा निलज यह जीव, भोग में भयौ विदेही ।
अजहूं पलटत मांहि, कढ़त गुण वे के वे ही ॥ कवि ने अपनी कुण्डलिया में मन के सच्चे पश्चाताप का कितना सुन्दर चित्र खींचा है ? कहा है-पूर्व की तरह ही दिन, रात, तिथि, वार, नक्षत्र मास और वर्ष आते हैं तथा जाते हैं। उसी तरह हम खाते-पीते सोते-जागते तथा काम-धन्धे करते हैं । कोई भी परिवर्तन दिख ई नहीं देता । जिन निरर्थक कार्यों को पहले करते थे अब भी उन्हें ही बारम्बार किये जा रहे हैं। यद्यपि हम देखते हैं कि इन्हें करने से भी हमारी इन्द्रियों को कभी तृप्ति नहीं हो पाती, हमारी लालसा कभी समाप्त नहीं होती फिर भी महान आश्चर्य है कि हम इस असार और मिथ्या संसार से मोह नहीं त्यागते ।
बन्धुओ, जो व्यक्ति ऐसा सोचते हैं वे शनै: शनैः अवश्य ही अपने आपको बदल लेते हैं। उनका पश्चाताप निरर्थक नहीं जाता और सुबह का भूला हुआ जिस प्रकार शाम को घर आ जाता है, उसी प्रकार वे भी अपने आत्म-स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं । चाहिए मनुष्य में आत्म-कल्याण की सच्ची लगन और सच्चा पुरुषार्थ । इन दोनों के सहारे वे अनन्त कर्मों की निर्जरा करके भी अन्त में मुक्ति प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
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