Book Title: Anand Pravachan Part 03
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 340
________________ महात्मा कबीर ने भी कहा है सुनकर हृदयंगम करो ज्योंनयनन में पूतली, त्यों मालिक घट मांहि । मूरख नर जाने नहीं, बाहर ढूंढ़न जाहिं ॥ कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढूँढ़े वन माहि । ऐसे घट-घट ब्रह्म है, दुनिया जाने नाहिं ॥ जिस प्रकार आँखों में पुतलियाँ हैं, उसी तरह हृदय में परमात्मा है किन्तु मूर्ख व्यक्ति उसे ढूँढ़ने के लिए बाहर भागते फिरते हैं । दूसरा उदाहरण मृग का दिया गया है । कहा है- कस्तूरी हिरण की अपनी नाभि में ही होती है किन्तु वह उसे खोजने के लिए वन-वन में भटकता है । ३२३ आशय कहने का यही है कि सच्चा आनन्द एवं मोक्ष प्राप्ति का स्थान तो मानव की अपनी आत्मा ही है पर दुर्बुद्धि के कारण वह उस आनन्द को संसार के भोगों में पाना चाहता है और कुछ व्यक्ति अगर भोगों से विरक्त हो जाते हैं तो साधु सन्यासी का भेष धारण करके मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा आदि स्थानों में या तीर्थ स्थानों में भगवान को खोजते फिरते हैं । दोनों ही प्रकार के व्यक्ति अज्ञान में रहते हैं । न उन्हें आनन्द ही प्राप्त हो पाता है और न भगवान ही । इसका कारण कवि सुन्दरदास जी बताते हैं कोउक जात प्रयाग बनारस कोउ गया जगन्नाथहि धावं । कोउ मथुरा बदरी हरिद्वार सु कोउ गंगा कुरुक्षेत्र नहाये || कोउक पुष्कर ह्व पंच तीरथ दौरहि दौरिजु द्वारिका आवे । सुन्दर वित्त गड्यो घर माँहि सु बाहर ढूढ़त क्यों करि पार्श्व ॥ Jain Education International सरल और सीधी-साधी भाषा में कवि ने कितनी रहस्यपूर्ण बात कह दी है कि जिस प्रकार घर में गड़ा हुआ धन बाहर ढूंढने से नहीं मिल सकता, उसी प्रकार जो परमात्मा अपनी आत्मा में ही निहित है, वह प्रयाग, काशी, गया, पुरी, मथुरा, कुरुक्षेत्र और पुष्कर आदि तीर्थों में कैसे मिल सकता है ? तो बन्धुओ, मैं आपको यह बता रहा था कि जो ज्ञानी पुरुष होते हैं उनके हृदय का नाता अविच्छिन्न रूप से प्रभु से जुड़ा रहता है । उनका चित्त दुनियादारी की झंझटों से मुक्त और निर्मल, भावनाएँ शुद्ध और क्रियाएँ निष्कपट होती हैं । प्राणी मात्र के प्रति उनकी अपार करुणा और स्नेह की भावना होती है । उनके श्रुत ज्ञान रूपी, नेत्र सदा खुले रहते हैं और इसीलिये बे कभी कोई निदित कर्म नहीं करते और अपनी आत्मा को पतन के रास्ते पर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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