Book Title: Anand Pravachan Part 03
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 351
________________ आनन्द प्रवचन: तृतीय भाग रोगिणी नर्तकी ने बड़ी कठिनाई से अपनी आँखें खोलीं और भिक्षु को पहचान कर बोली - "कौन, भिक्षु उपगुप्त तुम अब आए हो ? अब मेरे पास क्या रखा है ? मेरा यौवन, सौन्दर्य, धन आदि सभी कुछ नष्ट हो गया ।" कहती हुई नतंकी रो पड़ी । ३३४ “पर मेरे आने का समय भी सभी हुआ है वासवदत्ता", कहते हुए भिक्षु उपगुप्त ने शान्ति से उसके समीप बैठकर उसके घावों को धोना शुरू किया । कुछ दिनों में औषधोपचार से वासवदत्ता का सौन्दर्य पूर्ववत् आकर्षक हुआ । तब भिक्षु उपगुप्त ने कहा कि, अब परमात्मा के बताए हुए मार्ग पर चलो अर्थात् ब्रह्मचारिणी बनकर तुम्हारे सौन्दर्य को देखकर जो आत्माएँ विचलित हुई थीं, उनको सन्मार्ग पर लगावो और उनके जीवन को सार्थक बनावो । वासवदत्ता ने भी उस भिक्षु के वचनों को शिरोधार्य किया व उस कार्य में सफल बनी । इस प्रकार संसार में अनेक नरपुंगव ऐसे होते हैं जो काम विकारों को सर्वथा जीत लेते हैं और भोग-लालसा का त्याग करके अपनी आत्मा को उन्नत बनाते हुए साधना के मार्ग पर बढ़ते हैं । अब श्लोक का अन्तिम चरण सामने आता है : निस्पृहस्य तृणं जगत् । यानी जो निस्पृही मानव होता है उसके लिये समग्र संसार हो तिनके के समान मूल्यरहित साबित होता है । जिसके हृदय में जगत के प्रति सच्चा वैराग्य उत्पन्न हो जाता है वह सदा मध्यस्थभाव में रमण करने लगता है । उसे न कोई पदार्थ प्रिय लगता है और न अप्रिय । न किसी भी वस्तु पर उसका राग होता है और न किसी व्यक्ति से द्वेष । राग और द्व ेष ही संसार भ्रमण कराने वाले होते हैं : "रागो य दोसोऽवि य कम्म बोयं " - राग और द्व ेष ही समस्त कर्मों के बीज हैं । स्वरूप से अलग हो जाता है तथा इन्हीं दो दोषों के कारण आत्मा अपने उसकी भयंकर दुर्गति होती है। इस संसार में जितने भी कष्ट, संकट और वेदनाएँ भुगतनी पड़ती हैं उनका कारण यही राग और द्वेष की ही जोड़ी है । यही आत्मा के विवेक पर पर्दा डालकर बुद्धि को भी भ्रष्ट करती है । किन्तु जो भव्य प्राणी अपनी आत्मा को सम्पूर्ण कष्टों और सम्पूर्ण उपाधियों से मुक्त करना चाहते हैं वे सर्वप्रथम किसी भी पदार्थ और प्राणी कोन प्रिय मानते हैं, न अत्रिय । अपितु सबके प्रति उपेक्षणीय भाव रखते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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