Book Title: Anand Pravachan Part 03
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 339
________________ ३२२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग पर जोक नहीं छोड़ेगा इस पीरा जाल को। यह पोरा जाल गर तुझे चाहे तो छोड़ दे। कवि का कहना है कि मनुष्य को चाहिए तो यह कि वह संसार के प्रति मोह को समाप्त कर दे तथा यह आत्मा जिस परमात्मा का अंश है उसी में उसे मिला दे किन्तु जीक का कथन है कि लोग दुनिया को नहीं छोड़ते, चाहे दुनिया ही उन्हें निकम्मा करके त्याग देती है । अपनी इस आसुरीवृत्ति के कारण वे ऐसे निविड़ पाप कर्मों का बन्धन कर लेते हैं कि सच्चे आनन्द का अनन्तकाल तक भी अनुभव नहीं कर पाते। किन्तु देवी भावनाएं रखने वाले भव्य पुरुष महापुरुषों के उपदेश सुनकर तथा शास्त्र श्रवण करके अपने आत्मा की पहचान कर लेते हैं तथा उसमें रहे हुए सद्गुणों को एवं उसमें रही हुई अनन्तशक्ति व चमत्कारिक कलाओं को जगा लेते हैं । भगवान के उपदेशों को सुनकर वे सचेत हो जाते हैं और देवी भावनाओं के स्वामी बनकर जान लेते हैं कि इन समस्त भौतिक सुखों से परे भी कोई सुख व आनन्द है जिसकी तुलना में संसार के सम्पूर्ण सुख तुच्छ हैं । वे धीर वीर और संयमी पुरुष जीवन के रहस्य, उसके लाभ और उसकी के द्भुत शक्ति को जानकर आशा और तृष्णा पर सदैव के लिए विजय प्राप्त कर लेते हैं । संसार के प्रति मोह को त्याग कर आत्मा से नाता जोड़ते हैं। वे महापुरुष स्वयं तो जागृत हो ही जाते हैं, संसार के अन्य प्राणियों को भी जगाने के लिए कहते हैं तस्मादनन्तमजरं परमं विकासी। तब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पै ॥ यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्यभोगावयः कृपण लोकमता भवन्ति ।। - भर्तृहरि कहते हैं-हे प्राणियो ! तुम तो अजर, अमर अविनाशी एवं शान्तिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करो। संसार के मिथ्या जंजालों में कुछ भी नहीं है । ये सब अनित्य और असार हैं अतः उस अभूतपूर्व परमानन्द की प्राप्ति का प्रयत्न करो जिसके समक्ष पृथ्वी पति महाराजाओं का आनन्द भी सर्वथा तुच्छ दिखाई देता है। __मतलब यही है कि संसार के भोग-विलासों में तनिक भी आनन्द नहीं है, उनमें तुम जो आनन्द मान हो वह क्षणिक है । सच्चा आनन्द कहीं बाहर प्राप्त नहीं हो सकता वह तो अपनी आत्मा से ही प्राप्त हो सकता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366