Book Title: Anand Pravachan Part 03
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 345
________________ ३२८ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग दुख और क्लेश होगा । पर अगर मनुष्य अपनी इच्छा से उन्हें छोड़ दे तो उसे इस जीवन में संतोष और उसक बाद अनन्त सुख और शान्ति प्राप्त होगी। वस्तुतः जो लोग विषयों को स्वेच्छा से त्याग देते हैं उन्हें बड़ा आत्मसंतोष प्राप्त होता है । किन्तु जिन्हें जीवन के अन्त में जबरन त्यागना होता है उनका अन्त अति विकलता में होता है। इसलिए बुद्धिमान और ज्ञानवान को समय रहते ही समस्त धन-दौलत और स्त्री पुत्रादि से मोह ममत्व को हटा लेना चाहिए । तथा इच्छा पूर्वक त्याग करने के पश्चात् पुनः उन्हें ग्रहण करने की स्वप्न में भी कामना नहीं करनी चाहिए । त्याग करके पुनः ग्रहण करना और दान देकर भी पुन: उसे लेना किसी वस्तु का वमन करके उसे फिर से ग्रहण करने के समान है। इसी कारण राजा इषकार की रानी कमलावती ने राजा को प्रतिबोध देकर स्वयं भी संयम मार्ग को अपनाया था। - श्री उत्तराध्ययन सूत्र के चौदहवें अध्याय में इस पर विशद वर्णन है। संक्षेप में कथा इस प्रकार है-भगु पुरोहित उसकी पत्नी तथा उनके दो पुत्र इन चारों ने एक साथ ही दीक्षा ग्रहण कर ली। भृगु राज्य पुरोहित थे अतः उनके यहाँ अगर सम्पत्ति थी। जब चारों घर से निकल गए तो राज्य के नियमानुसार कि वारिस न होने पर धन राज्य कोष में आता है, पुरोहित का धन गाड़ियों में भर भरकर राजमहल की ओर आने लगा। _____रानी कमलावती ने झरोखे से यह देखा तो राजा से पूछा-"यह धन कहाँ आ रहा है।" . राजा ने बताया-"भृगु पुरोहित ने सपरिवार दीक्षा ले ली है और उनके धन का अब कोई वारिस नहीं है अतः यह सब राज्यकोष में जमा किया जा रहा है।" __रानी को यह जानकर अत्यन्त दुःख हुआ और उसने राजा इषुकार से कहा , वंतासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसिओ। माहणेण परिच्चतं, धणं आयाउमिच्छसि ।। - उत्तराध्य यन सूत्र १४-३८ अर्थात् -हे राजन् ! वमन किये हुए को पुनः खाने वाला कभी प्रशंसा का पात्र नहीं होता और आप तो ब्राह्मण द्वारा त्यागे हुए धन को ग्रहण करने की इच्छा रखते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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