Book Title: Anand Pravachan Part 03
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 338
________________ सुनकर हृदयंगय करो ३२१ -इन्द्रियों का असंयम अर्थात् विषयों का सेवन ही आपत्तियों के आने का मार्ग कहा गया है। - आज के युग में लोग कुछ तो समय के प्रभाव से और कुछ पश्चिमी सभ्यता और शिक्षा के प्रभाव से विलासिता की ओर बढ़ते जा रहे हैं। वे अधिक से अधिक भोग विलास कर लेने में ही जीवन की सार्थकता मानते हैं। हमारे भारत की प्राचीन संस्कृति और विचारधारा की ओर उनकी उपेक्षा है, उसे हेय कहने में भी वे नहीं चूकते । इसका कारण यही है कि उन्हें सच्चे आनन्द की परिभ षा ही मालूम नहीं है । महात्मा गाँधी का कथन है "सुख-दुःख देने वाली बाहरी चीजों पर आनन्द का आधार नहीं है। आनन्द सुख से भिन्न वस्तु है । मुझे धन मिले और मैं उसमें सुख मानू यह मोह है । मैं भिखारी होऊँ, खाने का दुःख हो, फिर भी मेरे इस चोरी या. किन्हीं दूसरे प्रलोभनों में न पड़ने में जो बात मौजूद है वह मुझे आनन्द प्रदान करती है।" गांधी जी के कथन से स्पष्ट है कि बाह्य पदार्थों से प्राप्त होने वाला सुख, सुख नहीं अपितु सुखाभास मात्र है । आनन्द का सच्चा स्रोत तो अपने अन्दर ही है अतः उसे अन्दर से ही खोज कर निकालना होगा । आध्यात्मिकता का परित्याग करके कोरी भौतिकता का आश्रय लेने पर आनन्द की प्राप्ति होना कदापि संभव नहीं है। इस संसार में सदा से दो प्रकार की भावनाएँ मनुष्यों के अन्दर रहती आ रही हैं । एक को हम आसुरी भावनाएँ कहते हैं और दूसरी को देवी । जो व्यक्ति सांसारिक सफलताओं की प्राप्ति में अर्थात् इन्द्रिय सुखों के सम्पूर्ण साधन जुटा लेने में और उनका भोग करने में ही प्रयत्नशील रहते हैं. धन सम्मान और पदवियों के अभिलाषी बने रहते हैं वे अपने इन भौतिक प्रयासों के कारण आत्मा और आत्मा के लाभ को सर्वथा भुला बैठते हैं। उन्हें हम आसुरी भावनाओं के स्वामी कह सकते हैं। वे भूल जाते हैं कि हम चाहे जितने भोग भोगें मगर उनका अन्त न कभी आया है और न ही आएगा किन्तु हमारी उम्र इस तृष्णा का गड्ढा भरतेभरते ही पूरी हो जाएगी । अर्थात् हम भोगों को शान्त नहीं कर पायेंगे और ये भोग शरीर व इन्द्रियों के नष्ट होते ही हमें छोड़ देंगे। मुस्लिम शायर जोक ने कहा है दुनिया से जौक रिश्तये-उल्फत को तोड़ दे। जिस सर का ये बाल उसी सर पे जोड़ दे ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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