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वमन की वाञ्छा मत करो
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मर जाना तथा सर्वस्व का विनाश हो जाना कबूल कर लिया किन्तु धर्म का त्याग नहीं किया। समुद्र मे जो उनके अनेकों साथी थे उन सब ने तो कह दिया- "अरणक श्रावक धर्म को नहीं त्यागते तो न सही हम सब उसे छोड़ने के लिए तैयार हैं।" किन्तु देवता थककर उन लोगों से यह कहकर चल दिया कि तुम लोगों में धर्म है ही कहाँ ? वह तो केवल अरणक श्रावक में ही है।
कहने का अभिप्राय यही है कि भले ही संयम ग्रहण न किया जाय, बारह व्रत भी न लिये जायें किन्तु छोटा सा एक व्रत भी ग्रहण करके उसे पुनः खंडित नहीं करना चाहिए। त्यागी हुई वस्तु, त्यागा हुआ भोग वमन के समान समझ कर पुन: उसके नजदीक आने की इच्छा करना साधक के लिए घृणित और निषिद्ध है।
बधुओ प्राचीन समय में श्रावक कितने दृढ़ हुआ करते थे अतुल वैभव होते हुए भी बारह व्रत तो अंगीकार करते ही थे साथ ही उनका पालन भी मृत्यु तक की परवाह न करते हुए करते थे। उनके मुकाबले में आज आपके पास कितनी सामग्री है ? फिर भी क्या आप कोई व्रत ग्रहण करते हैं ? कितने नियम हैं आपके ? पुराने श्रावक एक महीने में छ:-छ: पौषध कर लिया करते थे पर आप क्या एक भी कर पाते हैं ? नहीं क्योंकि उनके लिए ऐश-आराम और इन्द्रिय सुखों का त्याग करना पड़ता है । त्याग के महत्व को आप समझते नहीं हैं, उस पर विश्वास नहीं करते हैं। अन्यथा जान पाते कि दृढ़तापूर्वक त्याग करने से अन्त में मोक्ष प्राप्ति भी हो सकती है। भगवद्गीता में कहा गया है
___ "त्यागाच्छान्तिरनन्तम्" -इच्छापूर्वक प्राप्त भोगों के परित्याग का अन्तिम परिणाम "अनन्त
शांति" है ।
___इसीलिए मुमुक्षु प्राणी संसार के दुःखों से घबराकर सर्वदा यही भावना पाते हैं। -
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सर्प सुमन को हार उग्र बरी अरु सज्जन । कंचन मणि अरु लोह कुसुम शय्या अरु पाहन ।। तृण अरु तरुणी नारि सवन पर एक दृष्टि चित । कहं राग नहिं रोव द्वष कितहं न कहं हित । ह हैं कब मेरी यह दशा-गंगा के तट तप जपत । रस भीने दुर्लभ दिवस ये, बीतंगे 'शिव-शिव' रटत ॥
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