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अ नन्द प्रवचन : तृतीय भाग
उसके दिमाग में शक्ति नहीं होती बुद्धि नहीं होती । बुद्धि के अभाव में उसका विवेक जागृत नहीं हो पाता तथा अपनी आत्मा की शक्ति और उसके स्वरूप को जानने का वह प्रयत्न नहीं कर सकता ।
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दूसरे प्रकार का व्यक्ति कारीगर के समान होता है । वह कुछ शरीर से काम लेता है और कुछ दिमाग से । दिमाग से काम लेता हुआ वह संसार के स्वरूप को समझता है किन्तु अज्ञान और मिथ्यात्व के अन्धकार में भटक जाता है तथा कर्तव्य के स्थान पर अकर्तव्य करने लगता है। आत्म-साधना के लिए भी वह क्रियाएँ करता है किन्तु सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् ज्ञान न होने के कारण वे क्रियाएँ बनावटी और विवेक रहित साबित होती हैं तथा बे लक्ष्य की सिद्धि नहीं करा सकतीं ।
तीसरे प्रकार का व्यक्ति कल कार के समान होता है । जिस प्रकार कलाकार अनेक प्रकार की कलाएँ दिखाता है, थोड़े खर्च में भी विशेष प्रकार की कुशलताएँ लोगों के सामने रखता है, उसी प्रकार कलाकार के समान बन जाने वाला व्यक्ति शरीर, दिमाग और अन्तःकरण से भी काम लेता है । उसका विवेक जागृत रहता है अतः वह भोगों को हेय समझकर उनका त्याग करता जाता है । अन्तःकरण में विवेक जागृत रहने के कारण वह सत्य-असत्य की पहचान कर लेता है तथा कलाकार के समान सत्य को अपने जीवन में उतारता हुआ अपने चारित्र को निष्कलंक बनाता है । उसे सच्चे देव, गुरु तथा धर्म पर पूर्ण विश्व स होता है अतः उसकी साधना मुक्ति की रूही दिशा की ओर बढ़ती जाती है । अपने शरीर को वह आत्मा का कारागार समझता हुआ ऐसे शुभ अवसर और समय की प्रतीक्षा में रहता है कि कब मेरी आत्मा इस कैद से मुक्त हो तथा पुनः किसी भी शरीर रूपी पिंजरे में कैद न न हो पाए ।
वह संसार में रहता है, संसार की सुख सामग्रियों का उपभोग भी करता है किन्तु पूर्ण निर्विक र भाव से । क्योंकि वह इस बात पर विश्वास करता है कि जब तक मेरे कर्मों की स्थिति या अवधि पूर्ण नहीं होगी, तब तक मेरी आत्मा को विवश होकर संसार भ्रमण करना पड़ेगा । ऐसा विचार कर वह सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति में सुख और उनके वियोग से दुःख का अनुभव नहीं करता ।
एक विद्वान ने कहा भी है
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उत्तमः क्लेश - विक्षोभं सोढुं शक्तो नहीतरः | मणिरेव महाशाणघर्षणं, न तु मृद्कणम् ॥
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