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वमन की वाञ्छा मत करो २८६ --उत्तम पुरुष ही दुःख और शोक को सहने में समर्थ होता है, अधम मनुष्य नहीं। जैसे मणि खराद के घर्षण को सहन कर सकता है, मिट्टी का तेला नहीं।
. जिस प्रकार सच्चा कलाकार प्रतिमा के निर्माण में भावों को भी बड़ी बारीकी से अंकित कर सकता है, उसी प्रकार सच्चा विवेको अपनी आत्मा में बारीकी के साथ प्रत्येक सद्गुण एवं प्रत्येक कल्याणकारी भावना को समाहित कर लेता है । परिणाम यह होता है कि उसकी आत्म-शक्ति दृढ़ से दृढ़तर : बनती जाती है तथा वह क्रमशः हेय विषयों का त्याग करता जाता है और त्यागे हुए विषयों को वमन के समान समझकर पुनः कभी भी उन्हें ग्रहण करने की इच्छा नहीं करता। ___ और तो और वह मृत्यु की भयंकरता को भी जीत लेता है। मृत्यु को को वह दुःखदायी और शोक का कारण नहीं मानता अपितु एक साधारण और स्वाभाविक क्रिया मानता है । अपने पुराने और जोर्ण शरीर का त्याग करना वह पुराने और जीर्ण वस्त्र का त्याग करने के समान समझता है। परमार्थ दृष्टि से विचार करके वह मृत्यु के आने पर रोता नहीं, चीखता-चिल्लाता नहीं, वरन पूर्ण निर्भयतापूर्वक उसका सामना करता हुआ कहता है
जिस मरने से जग डरे, मेरे मन आनन्द ।
मरने ही ते पाइये, पूरण परमानन्द । . वह कहता है-संसार के वे लोग अज्ञानी हैं जो मरने से डरते हैं। मेरे हृदय में तो उसके आगमन की अपार खुशी है क्योंकि मरने पर ही तो मैं पूर्ण और परमानन्द को प्राप्त कर सकूगा।
तो विवेकी तथा अपनी आत्मा के स्वरूप को समझने वाला तथा अपनी आत्म-शक्ति पर विश्वास करने वाला व्यक्ति मृत्यु से तनिक भी नहीं डरता और अपने आपको इस संसार में एक अभिनेता मानकर जिस तरह स्टेज से अभिनेता अभिनय करके सहर्ष उतर जाता है उसी प्रकार विवेकी व्यक्ति भी इस संसार को स्टेज मानकर अपने सम्पूर्ण जीवन को ही अभिनय जानकर मृत्यु के बहाने इसे छोड़ जाता है ।
श्री भर्तृहरि ने यही बात अपने एक श्लोक में बड़े सुन्दर ढंग से कही है । श्लोक इस प्रकार है
क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा कामरसिकः । क्षणं विसोनः क्षणमपि च सम्पूर्ण विभवः ।। जराजीणेरगर्नट इव बली-मण्डित तनुनरः संसारान्ते विशति यमधानियत्रनिकाम् ।।
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