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सुनकर हृदयंगम करो
मनुष्य सुने हुए उपदेशों को, महावचनों को कान से सुनकर हृदय में विशुद्ध बनाकर मोक्ष को पा सकता रुपये का या मारवाड़ी भाषा में
रुपया है । यह मूर्ति बताती है कि अगर पुरुषों की शिक्षाओं को और शास्त्रों के उतार ले तो अपनी आत्मा को पूर्णतया है । ऐसा गुण रखने वाला व्यक्ति ही लाख 'लाखीणा' पुरुष कहलाता है ।
संस्कृत भाषा में भी वीतराग वाणी को हृदय में धारण करने वाले तथा उन पर चिन्तन-मनन करने वाले व्यक्ति को ही आंख वाला कहते हैं । श्लोक इस प्रकार है
चक्षुष्मंतस्त एव, ये श्रुतज्ञान चक्षुषा । सम्यक् सदैव पश्यंति, भावान् हेयेतरान्नराः ॥
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कहते हैं - आँख अलग है और आंखवाले अलग हैं। गाड़ी अलग है और गाड़ी वाला अलग है । अपने दास आँख हैं पर उसका उपयोग नहीं किया जाय तो आँख के होने से क्या लाभ है ? आँख होकर भी अगर व्यक्ति आँख मूदकर चले तथा रास्ते में ठोकरें खाता जाय तो उसे आप मूर्ख ही कहेंगे ।
afa ने श्लोक में आँख को श्रुत ज्ञान की उपमा दी है । श्रुत ज्ञान रूपी आँख खुली होने पर व्यक्ति भली-भाँति जान सकता है कि शास्त्र क्या कहते हैं ? सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चरित्र क्या हैं तथा वे किस प्रकार आत्मा को उन्नत और निष्पाप बनाते हैं ? मनुष्य के लिये हेय ज्ञेय तथा उपादेय अर्थात् छोड़ने, जानने और ग्रहण करने लायक क्या हैं ? श्रुत ज्ञान रूपी चक्षु से ही मानव विषय विकारों से अर्जित होनेवाले पापों का तथा सत्य, अहिंसा अचौर्य आदि सद्गुणों से होने वाले लाभों का ज्ञान कर सकता है ।
हितोपदेश में कहा गया है :
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सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्तयंध एव सः ।
शास्त्र सबके लिये नेत्र के समान हैं । जिसे शास्त्र का ज्ञान नहीं वह अन्धा है ।
वस्तुतः शास्त्रों का ज्ञान किये बिना नहीं जाना जा सकता कि श्रावक के कर्तव्य क्या हैं और साधुओं के क्या हैं ? वीतरागों की स्पष्टतः दोनों के अपने-अपने कर्त्तव्य और अपनी-अपनी चर्चा के विषय में बताती है किन्तु अगर श्रावक उसके अनुसार न चले तो उनकी भूल है और साधु भी अपनी चर्य का शास्त्रानुसार पालन न करे तो उनकी महा भयंकर गलती है । भगवान किसी का भी राखी नहीं बाँधते अर्थात् वे किसी का भी पक्षपात नहीं करते । श्रावक हो या साधु सब अपनी-अपनी करनी का ही फल प्राप्त करते
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