Book Title: Anand Pravachan Part 03
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

Previous | Next

Page 320
________________ कांटों से बचकर चलो ३०३ को जानने वाले प्रबुद्ध । जो प्रबुद्ध होंगे वे ही स्वयं अपना और दूसरों का कल्याण कर सकेंगे। आप नमोत्थुणं पाठ में बोलते हैं - 'बुद्धाणं बोहयाणं' यानि भगवान तत्त्व को जानते थे और इसलिये ओंरों को भी उपदेश देते थे। अगर स्वय उनके पास ज्ञान नहीं होता तो वह औरों को क्या उपदेश दे सकते थे? जिसके पास जैसी वस्तु होती है वही वह औरों को देता है। भगवान के पास केवल ज्ञान और केवलदर्शन था अत: उन्होंने दूसरों को भी ज्ञान प्रदान किया। सवप्रथम वे तत्वज्ञ बने और उसके पश्चात् औरों को नसीहत दी। कल्याणकारी नसीहत का आत्मोत्थान में बड़ा भारी भाग होता है । एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा भी है"God counsel has no Price" -अच्छी नसीहत अमूल्य होती है । कहने का आशय यही है कि प्रथम तो मुमुक्ष स्वयं प्रबुद्ध बने और उसके पश्चात् शांति से विचरण करता हआ औरों को बाँध देने का प्रयत्न करे । अगर वह स्वयं तत्वज्ञ नहीं होता तो औरों को बोध देना उसके लिये असम्भव है । स्वयं व्यक्ति ज्ञानी हो और अपने आचरण में वह ज्ञान को उतारता भी हो, तभी उसके उपदेश का असर औरों पर पड़ता है। उपदेश का सच्चा प्रभाव __एक व्यक्ति अपने पुत्र को एक संत के पास लाया और बोजा-''भगवन् ! यह लड़का गुड़ बहुत खाता है कृपा करके इसकी यह आदत छुड़वा दीजिये।" ____ संत ने उत्तर दिया-"भाई ! इसे एक पक्ष के बाद मेरे पास लाना, तब मैं इसकी गुड़ खाने की आदत को छुड़वाऊँगा। पन्द्रह दिन बाद वह व्यक्ति अपने लड़के को लेकर पुनः महात्मा के पास आया। महात्मा ने बच्चे को बड़े प्यार से कहा- "वत्स ! तुम गुड़ मत खाया करो।" उस लड़के ने उसी दिन से गुड़ खाना छोड़ दिया। ___ बहुत दिन बाद एक दिन महात्मा ने उस व्यक्ति से पूछा-"तुम्हारा लड़का अब तो गुड़ नहीं खाता ? पिता ने उत्तर दिया-"महात्मा जी ! आपके उपदेश ने बड़ा चमत्कारिक असर किया है । अब मेरा पुत्र कभी भी गुड़ नहीं खाता। किन्तु आप कृपया मुझे इस बात का रहस्य समझाइये कि आपने उसे गुड़ न खाने का उपदेश उसी दिन न देकर पन्द्रह दिन पश्चात् क्यों दिया था ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366