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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
रूपी हंस कैद है । इस शरीर के कारण ही आत्मा को शाश्वत सुख प्राप्त नहीं हो पाता क्योंकि यह असंख्य व्याधियों का नाना प्रकार के विषय-विकारों एवं मोह तथा शोक का मूल स्थान है। इसी के कारण मनुष्य आर्तध्यान व रौद्रध्यान को ध्याकर आत्मा के लिये अनन्त वेदनाओं का अर्जन करता है दूसरे शब्दों में अपने आप ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारता है।
- इसीलिए इन पंक्तियों के रचयिता ने चेतावनी दी है-हे ज्ञानी जीव ! तुम इस शरीर और संसार के प्रति होने वाले राग का त्याग करके अपने आत्म-हंस को पुनः-पुनः नवीन शरीरों में कैद होने से बचाओ और इसे मुक्त करो।
भगवान महावीर ने भी अपने प्रिय शिष्य गौतम स्वामी को सम्बोधित करते हुए कहा है
बुद्धे परिनिन्बुडे चरे,
गाम गए नगरे व संजए, सन्तीमग्गं च बूहए,
समयं गोयम ! मा पमायए।
- उत्तराध्ययन सूत्र १०-३६ अर्थात् - "हे गौतम ! प्रबुद्ध व शान्तरूप होकर संयम-मार्ग में विचरण करो तथा पापों से निवृत्त होकर ग्राम, नगर या अरण्य आदि स्थानों में रह कर शांति के मार्ग पर बढ़ो । इस काम में समय मात्र का भी प्रमाद मत करो।"
कितना सुन्दर एवं कल्याणकारी उपदेश दिया गया कि हे जीव ! अगर तुझे अपनी आत्मा रूपी हंस को सदा के लिये विभिन्न शरीरों के कारागारों में कंद होने से बचाना है, अर्थात् सदैव के लिए शरीर-कारागार से मुक्त करना है तो तत्वज्ञ बनकर संयम मार्ग में विचरण कर । कषाय रूप अग्नि से अपनी आत्मा को झुलसने से बचा तथा शान्त रूप होकर सब पापों से दूर रहते हुए शाश्वत सुख की प्राप्ति का प्रयत्न कर।" __"भले ही तू गांव में रहे, नगर में रहे अथवा वनों में निवास करे पर स्वयं कर्मों के उपार्जन से बचे तथा अन्य प्राणियों को सदुपदेश देकर उन्हें भी पाप कर्मों से बचाकर कल्याणकारी मार्ग पर चलाने का प्रयत्न करे तभी तेरा जीवन स्वयं तथा पर को शांति पहुंचाने वाला बन सकता है।
वास्तव में ही यह शिक्षा प्रत्येक मुमुक्षु के लिए है जिसे अपने अमूल्य मानव पर्याय को सफल बनाने की आत्मिक छटपटाहट है। भगवान महावीर के द्वारा फरमाई हुई गाथा में सर्वप्रथम शब्द आय है-'बुद्धे' अर्थात् तत्वों
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