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२५ काँटों से बचकर चलो
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धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो!
आप जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अधिकाधिक उन्नत बनाना चाहता है। इतना अवश्य है कि कोई अपने जीवन की सफलता वैभवशाली बनने में मानता है, कोई यश-प्रतिष्ठा की प्राप्ति में, कोई सांसारिक सुखों को अधिकाधिक भोग सकने में, जीवन को सफल और उत्तम मानते हैं ।
किन्तु जीवन की सफलता इन सब पदार्यों को प्राप्त करने में नहीं है । इन सब उपलब्धियों को प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों की दृष्टि में शरीर मुख्य होता है और आत्मा नगण्य । दूसरे शब्दों में वे शरीर और आत्मा को भिन्न नहीं समझते क्योंकि उनकी दृष्टि अति सीसित होती है । इस जीवन और इस पृथ्वी को ही वे संसार समझते हैं। पर ज्ञानियों की दृष्टि ऐसी नहीं होती, वे आत्मा को शाश्वत कल्याण के दृष्टिकोण से गम्भीर विचार करते हैं तथा भली भाँति समझते हैं कि यह शरीर एक पिंजरा है और आत्मा रूपी हंस इसमें कैद है।
___पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने इस आत्म-हंस की कैद का अत्यन्त सुन्दर चित्र खींचा है, कहा है -
हंस का जीवित कारागार ।
__ अशुचि का है अक्षय भंडार ॥ विविध व्याधियों का मंदिर तन, रोग शोक का मूल, इस भव, परमव में शाश्वत सुख के सदैव प्रतिकूल ।
ज्ञानी, करो राग परिहार ।
हस का जीवित कारागार । इन चंद पंक्तियों में कितना रहस्य भरा हुआ है ? कवि ने स्पष्ट बताया है कि अपवित्रता के इस अक्षय-कोष रूपी शरीर में हमारा शुद्ध स्वरूपी तथा अक्षय सुख एवं शान्ति को प्राप्त कराने वाला निष्पाप एवं निष्कलुष आत्मा
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