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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
खड़े हुये और द्वारपाल से अपने आने की सूचना राजा जनक के पास भेजी।
राजा ने उत्तर में कहला भेजा-"द्वार पर ठहरो।" शुकदेव तीन दिन तक राजभवन के द्वार पर खड़े रहे किन्तु जनक ने उन्हें भीतर नहीं बुलव या। किन्तु इस पर भी शुकदेव को जरा भी क्रोध नहीं आया। राजा ने भी शुकदेव के क्रोध की परीक्षा लेने के लिए ही उन्हें तीन दिनों तक द्वार पर खड़ा रखा था।
अन्त में चौथे दिन शुकदेव जी को महल में बुलाया गया। अन्दर जाकर उन्होंने देखा कि राजा जनक स्वर्णमडित सिंहासन पर आसीन हैं उनके सामने अनिंद्य सुन्दरी नवयौवनाएँ नृत्य कर रही हैं, कुछ उनकी सेवा में संलग्न हैं । तात्पर्य यह कि राजा के चारों ओर ऐश- आराम के साधन बिखरे हये थे और यही दिखाई देता था कि राजा जनक भोगों में रत हैं।
यह सब देखकर शुकदेव जी को बड़ी घणा हुई और वे मन ही मन विचार करने लगे-"पिताजी ने मुझे किस नरक कुण्ड में भेज दिया। क्या यही राजा जनक का परम ज्ञान है कि इस प्रकार संसार के भोग-विलासों में रहा जाय ? मेरे पिता कितने भोले है कि इस विलासी राजा को वे परम ज्ञानी मानते हैं।"
__ शुकदेव के मन के भाव उनके चेहरे पर भी आए बिना नहीं रह सके । एक कहावत भी है
"चेहरा, मस्तिष्क और हृदय दोनों का प्रतिबिम्ब है।" तो शुकदेव के हृदय में राजा जनक के प्रति जो नफरत भरे विचार आए वे उनके चेहरे से भी झलकने लगे। राजा जनक ने उन्हें ताड लिया और वे कुछ कहने को उत्सुक ही हुये थे कि संयोगवश मिथिलापुरी में बड़े जोरों से आग लग गई । बाहर से कर्मचारी दौड़े हुए आये और व्यग्र होकर बोले"महाराज ! नगर में आग लग गई है और वह राजभवन तक भी पहुंचने बाली है।" ___ शुकदेव ने ज्योंही यह बात सुनी सोचने लगे-"अरे मेरा दण्ड कमण्डल तो बाहर ही रखा है कहीं वह न जल जाय।" यह विचारकर ज्योंहि वे बाहर जाने के लिये तैयार हुए कि महाराज के वाक्य उनके कानों में पड़े जो वे आग लगने की खबर लाने वाले दूतों से कह रहे थे :
अनन्तश्चास्ति मे बित्त,
मन्ये नास्ति हि किञ्चन । मिथिलायाँ प्रदग्धायां,
न मे दह्यति किञ्चन ।
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