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आनन्द प्रवचन: तृतीय भाग
इस विराट् विश्व में जीते तो सभी व्यक्ति हैं किन्तु ऐसे कितने हैं जो अपने जीवन को सार्थक बनाने के सम्बन्ध में गंभीर विचार करते हैं तथा उस पर अमल कर लेते हैं ? कितने व्यक्ति ऐसे हैं जो अपने स्वभाव में भद्रता रखते हैं, इन्द्रियों पर संयम रखते हैं, शक्ति के अनुसार दान, शील, तप और भाव की आराधना करते हैं । समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा एवं सद्भावना के भाव रखते हुए अपने हृदय को अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, पर- निन्दा, काम, क्रोध और मिथ्यात्व से दूर रखने का प्रयत्न करते हैं ।
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सारांश यही है कि जो भव्य प्राणी पापों से डरता है, पुनः चौरासी लाख योनियों में चक्कर काटने के भय से सदा सजग और सावधान रहता है तथा प्राप्त हुए मानव-जीवन को पूर्णतया सार्थक करना चाहता है वह इस मानवजन्म रूपी भव समुद्र के किनारे के करीब आकर पुनः उसमें गोते लगाने के कार्य अथवा कुकृत्य नहीं करता । वह सदा अपनी आत्मा में रमण करता है तथा उसके शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति करने का प्रयत्न करते हुए एक दिन किनारे पर पहुँच जाता है तथा सदा सर्वदा के लिए जन्म मरण से मुक्त हो जाता है ।
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