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रुको मत किनारा समीप है २६३ कब वह शुभ घड़ी और शुभ दिन आयेगा जबकि मैं अपने मनोरथों की पूर्ति करके अपने जीवन को सफल बनाऊँगा ?
तो बन्धुओ, प्रथम तो अनन्तकाल तक नाना योनियों में नाना कष्ट सहकर जीव बड़ी कठिनाई से मनुष्य जीवन को प्राप्त करता है और फिर अगर समस्त सांसारिक प्रलोभनों से बचकर तथा समस्त सम्बन्धियों से ममत्व हटाकर पांच महाव्रत धारण करके साधु बन जाता है तो फिर संसार सागर का किनारा प्राप्त कर लेने में और क्या कसर रह जाती है ? कुछ भी नहीं।
इसीलिये, भगवान महावीर गौतमस्वामी को सम्बोधित करते हुये कहते हैं कि हे गौतम ! तुम इस असीम संसार को तैरकर इसके किनारे तक तो आ गये हो अतः बिना प्रमाद किये शीघ्र ही बाहर आने का प्रयत्न करो। यही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है। दूसरे शब्दों में मानव-जीवन का उद्देश्य मात्मा के सच्चे स्वरूप को समझकर उसे कर्मों से मुक्त करके अव्याबाध शान्ति एवं अक्षय सुख प्राप्त करना है और इसीलिये इस मानव-जन्म रूपी संसार सागर के किनारे को प्राप्त कर लेने के बाद मनुष्य के समस्त प्रयत्न, पुरुषार्थ तथा साधनाएँ ऐसी होनी चाहिये जो उस अनन्तसुख की प्राप्ति में सहायक बन सकें।
किस मार्ग पर चलना है ? प्रश्न उठता है कि आत्म-मुक्ति के लिये मनुष्य को क्या करना चाहिये, कौन-सी क्रियाएँ करनी चाहिये तथा कौन-सा मार्ग अपनाना चाहिये । इस विषय को एक उदाहरण से समझा जा सकता है ।
एक सन्त के आश्रम में उनके कई शिष्य उनसे विद्याध्ययन किया करते थे। कई वर्ष तक यह क्रम चलता रहा तथा अनेक शिष्य अपने गुरु की अन्तिम परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अपने-अपने घर चले गए।
किन्तु एक शिष्य करीब बारह वर्ष तक उनके आश्रम में रहकर भी गुरुजी की परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सका। यह देखकर गुरु को शिष्य पर बड़ी झझलाहट हुई । वे बोले-'तू इतने वर्ष तक मेरे पास रहकर भी ज्यों का त्यों ही है । न शास्त्रीय ज्ञान ही हासिल कर सका है और न ही कुछ भी कण्ठस्थ कर पाया है । आखिर कब तक तू इस प्रकार यहाँ रहेगा।" . शिष्य बड़ी नम्रता से बोला-"भगवन् ! मेरे अपराध क्षमा कीजिए। मैं आपके पास रहकर कुछ भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका, इसका मुझे बड़ा दुःख है। पर आप यही समझकर मुझे अपने चरणों में रहने दीजिए कि आपकी वृद्धावस्था में सेवा करने के लिये कोई न कोई चाहिये और मैं वही हूँ।" गुरु उसकी नम्रता पर पिघल गए और चुपचाप रहे ।
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